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IPL के वे 13 वेन्यू जहाँ IPL की सभी 10 टीमों के मैच खेले जा रहे हैं। — 13 Venue stadium of IPL

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13 Venue stadium of IPL 2025

IPL 2025 स्टेडियम –  इंडियन प्रीमियर लीग के मैदान (13 Venue stadium of IPL)

आज हम बात करेंगे IPL (13 Venue stadium of IPL) के उन स्टेडियमों के बारे में जहां आईपीएल के सभी मैच खेले जा रहे हैं। इस सीजन में 10 फ्रेंचाइजी टीमें हिस्सा ले रही हैं और मैच कुल 13 वेन्यू पर खेले जा रहे। 7 टीमें अपने एक ही होम ग्राउंड पर अपने सभी होम मैच खेल रही हैं, जबकि 3 टीमों – पंजाब, दिल्ली और राजस्थान के पास अपने दूसरे होम ग्राउंड भी हैं। आइए हम इन सभी स्टेडियमों के बारे में विस्तार से जानते हैं।

अरुण जेटली स्टेडियम, नई दिल्ली

अब हम बात करते हैं दिल्ली के अरुण जेटली स्टेडियम की, जो पहले फिरोज शाह कोटला के नाम से जाना जाता था। यह भारत का दूसरा सबसे पुराना स्टेडियम है, जिसकी स्थापना 1883 में हुई थी। यह दिल्ली कैपिटल्स का मुख्य होम ग्राउंड है।

इस स्टेडियम में लगभग 55,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है। दिल्ली कैपिटल्स (पहले दिल्ली डेयरडेविल्स) आईपीएल की शुरुआत से ही इस मैदान पर अपने होम मैच खेल रही है।

इस स्टेडियम की पिच स्पिन गेंदबाजों के लिए मददगार मानी जाती है और यहां पर धीमी और निचली उछाल वाली पिचें आम हैं। 2019 में इस स्टेडियम का नाम बदलकर पूर्व वित्त मंत्री और दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे अरुण जेटली के सम्मान में रखा गया। इस स्टेडियम में कई ऐतिहासिक मैच खेले गए हैं, जिनमें अनिल कुंबले का 10 विकेट हॉल (पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट मैच में) भी शामिल है।

स्वाई मानसिंह स्टेडियम, जयपुर

सबसे पहले हम बात करते हैं जयपुर के स्वाई मानसिंह स्टेडियम की। यह राजस्थान रॉयल्स का प्रमुख होम ग्राउंड है। 1969 में स्थापित यह स्टेडियम आईपीएल की शुरुआत से ही राजस्थान रॉयल्स का पहला घरेलू मैदान रहा है।

इस स्टेडियम में लगभग 30,000 दर्शकों के बैठने की व्यवस्था है। गुलाबी शहर जयपुर में स्थित यह स्टेडियम अपनी विशिष्ट पिच के लिए जाना जाता है, जो बल्लेबाजों और गेंदबाजों दोनों को कुछ मदद प्रदान करती है। यहां की पिच पर शुरुआती ओवरों में गेंदबाजों को मदद मिलती है, लेकिन बाद में यह बल्लेबाजी के लिए अच्छी हो जाती है।

जयपुर के इस स्टेडियम का नाम महाराजा स्वाई मानसिंह द्वितीय के नाम पर रखा गया है, जो जयपुर के पूर्व शासक थे और भारतीय क्रिकेट में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राजस्थान रॉयल्स ने यहां कई यादगार मैच खेले हैं, जिनमें 2008 का अपना पहला IPL सीजन भी शामिल है।

एम.ए. चिदंबरम स्टेडियम, चेन्नई

एम.ए. चिदंबरम स्टेडियम, जिसे चेपॉक के नाम से भी जाना जाता है, चेन्नई सुपर किंग्स का होम ग्राउंड है। 1916 में स्थापित, यह भारत के सबसे पुराने क्रिकेट स्टेडियमों में से एक है।

स्टेडियम में 33,500 दर्शकों के बैठने की क्षमता है और CSK के प्रशंसकों ने इस वेन्यू को प्यार से ‘अंबुडेन’ का नाम दिया है, जिसका तमिल में अर्थ होता है ‘प्यार के साथ’। चेन्नई सुपर किंग्स आईपीएल के पहले सीजन से ही यहां अपने होम मैच खेल रही है।

इस स्टेडियम की पिच स्पिनरों के लिए स्वर्ग मानी जाती है और यहां पर धीमी गति और स्पिन की अधिक मदद मिलती है। CSK ने अपने कई सफल अभियानों के दौरान इस होम एडवांटेज का पूरा फायदा उठाया है।

यह स्टेडियम तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम.ए. चिदंबरम के नाम पर है और यहां भारत ने अपना पहला टेस्ट मैच जीता था। यह स्टेडियम अपने विशिष्ट वातावरण और CSK के प्रति समर्थकों के जुनून के लिए जाना जाता है।

ईडन गार्डन्स, कोलकाता

अब हम बात करते हैं भारत के सबसे पुराने और सबसे ऐतिहासिक क्रिकेट स्टेडियमों में से एक – ईडन गार्डन्स की। 1864 में स्थापित, यह कोलकाता नाइट राइडर्स का होम ग्राउंड है और टीम आईपीएल 2008 से यहां अपने मैच खेल रही है।

80,000 दर्शकों की क्षमता के साथ, यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है। कोलकाता के क्रिकेट प्रेमी दर्शकों के लिए प्रसिद्ध इस स्टेडियम में हमेशा जबरदस्त माहौल रहता है।

ईडन गार्डन्स की पिच परंपरागत रूप से मध्यम गति की रही है, जो बल्लेबाजों और गेंदबाजों दोनों को कुछ मदद प्रदान करती है। हालांकि, हाल के वर्षों में यहां की पिच बल्लेबाजी के अनुकूल हो गई है।

इस ऐतिहासिक स्टेडियम में कई यादगार मैच खेले गए हैं, जिनमें 1987 का विश्व कप फाइनल और IPL के कई रोमांचक मुकाबले शामिल हैं। यह स्टेडियम KKR के सह-मालिक शाहरुख खान के उत्साही समर्थन के लिए भी जाना जाता है।

एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम, बेंगलुरु

एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम बेंगलुरु में स्थित है और रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु का होम ग्राउंड है। 1969 में स्थापित इस स्टेडियम में लगभग 40,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

RCB के प्रशंसकों के जुनून के लिए प्रसिद्ध, इस स्टेडियम में हर मैच के दौरान ‘सी रेड सी’ का नजारा देखने को मिलता है, जब पूरा स्टेडियम लाल रंग में रंग जाता है। यह IPL में सबसे उत्साही समर्थकों का घर माना जाता है।

चिन्नास्वामी स्टेडियम की पिच बल्लेबाजों के लिए स्वर्ग मानी जाती है, और यहां पर उच्च स्कोरिंग मैच आम हैं। समुद्र तल से ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां गेंद अधिक दूरी तक जाती है, जिससे छक्के लगाना आसान हो जाता है।

इस स्टेडियम का नाम कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एम. चिन्नास्वामी के नाम पर रखा गया है। यहां क्रिस गेल का 175 रन का IPL का सबसे ऊंचा व्यक्तिगत स्कोर बनाने सहित कई रिकॉर्ड बने हैं।

राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम, हैदराबाद

हैदराबाद के उप्पल में स्थित राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम सनराइजर्स हैदराबाद का होम ग्राउंड है। 2004 में स्थापित इस स्टेडियम में 55,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

पहले यह स्टेडियम डेक्कन चार्जर्स (अब बंद हो चुकी फ्रेंचाइजी) का होम ग्राउंड था, लेकिन अब SRH यहां अपने होम मैच खेलती है। इस स्टेडियम की पिच आमतौर पर संतुलित होती है, जो शुरू में तेज गेंदबाजों को और बाद में स्पिनरों को मदद प्रदान करती है।

यह स्टेडियम अपने आधुनिक बुनियादी ढांचे और उत्कृष्ट दर्शक सुविधाओं के लिए जाना जाता है। डेविड वॉर्नर और जॉनी बेयरस्टो जैसे खिलाड़ियों ने यहां शानदार शतक लगाए हैं। 2025 सीजन में SRH के लिए यह स्टेडियम महत्वपूर्ण घरेलू मैदान के रूप में कार्य करेगा।

नरेंद्र मोदी स्टेडियम, अहमदाबाद

अहमदाबाद में स्थित नरेंद्र मोदी स्टेडियम गुजरात टाइटन्स का होम ग्राउंड है। 1982 में स्थापित और बाद में 2020 में पुनर्निर्मित, यह दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है जिसमें 1,10,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

गुजरात टाइटन्स, जो 2022 में आईपीएल में शामिल हुई थी, इस विशाल स्टेडियम को अपना होम ग्राउंड बनाया। पहले सरदार पटेल स्टेडियम के नाम से जाना जाने वाला यह स्टेडियम अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर है।

इस स्टेडियम की पिच बल्लेबाजों और गेंदबाजों दोनों के लिए संतुलित है, जो अच्छे क्रिकेट मैच के लिए आदर्श है। इसके विशाल आकार के कारण फील्डिंग एक चुनौती हो सकती है और बड़े छक्के लगाना मुश्किल हो सकता है।

इस स्टेडियम में 2021-22 में अंतर्राष्ट्रीय मैच और 2023 में IPL फाइनल जैसे बड़े टूर्नामेंट आयोजित किए गए हैं। गुजरात टाइटन्स के लिए अपने पहले सीजन में ही यहां आईपीएल खिताब जीतना एक यादगार उपलब्धि थी।

वानखेड़े स्टेडियम, मुंबई

मुंबई में स्थित वानखेड़े स्टेडियम मुंबई इंडियन्स का होम ग्राउंड है। 1974 में स्थापित इस स्टेडियम में 33,108 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

पांच बार की आईपीएल चैंपियन मुंबई इंडियन्स टूर्नामेंट की शुरुआत से ही यहां अपने होम मैच खेल रही है। समुद्र के किनारे स्थित होने के कारण यहां की पिच पर तेज गेंदबाजों को स्विंग मिलती है, और शाम के समय विशेष रूप से।

इस स्टेडियम का नाम बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष एस.के. वानखेड़े के नाम पर रखा गया है। यह स्टेडियम 2011 के विश्व कप फाइनल का स्थल था, जहां भारत ने 28 वर्षों बाद विश्व कप जीता था।

सचिन तेंदुलकर, रोहित शर्मा और हार्दिक पांड्या जैसे खिलाड़ियों ने यहां कई यादगार पारियां खेली हैं। मुंबई इंडियन्स के लिए यह स्टेडियम किला के समान है, जहां उन्होंने कई मैच जीते हैं।

भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी एकाना क्रिकेट स्टेडियम, लखनऊ

लखनऊ में स्थित भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी एकाना क्रिकेट स्टेडियम लखनऊ सुपर जायंट्स का होम ग्राउंड है। 2017 में स्थापित इस स्टेडियम में 50,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

यह अपेक्षाकृत नया स्टेडियम है और लखनऊ सुपर जायंट्स, जो 2022 में आईपीएल में शामिल हुई, के लिए होम ग्राउंड के रूप में कार्य कर रहा है। इस स्टेडियम का नाम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मान में रखा गया है।

एकाना स्टेडियम की पिच आमतौर पर बल्लेबाजी के अनुकूल होती है, लेकिन स्पिनरों को भी कुछ मदद मिलती है। स्टेडियम के आधुनिक बुनियादी ढांचे में स्टेट-ऑफ-द-आर्ट सुविधाएं हैं, जिसमें उत्कृष्ट फ्लडलाइट्स और दर्शकों के लिए आरामदायक सीटें शामिल हैं।

महाराजा यादविंद्र सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम, मुल्लांपुर

पंजाब में मोहाली के मुल्लांपुर क्षेत्र में स्थित महाराजा यादविंद्र सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम पंजाब किंग्स का नया होम ग्राउंड है। 2017 में स्थापित इस स्टेडियम में 33,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

यह स्टेडियम IPL 2024 सीजन से पंजाब किंग्स का होम ग्राउंड बना, जिसने पीसीए स्टेडियम मोहाली की जगह ली। पूर्व पटियाला शासक महाराजा यादविंद्र सिंह के नाम पर नामित, यह स्टेडियम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस है।

इस स्टेडियम की पिच अभी नई है और समय के साथ इसका व्यवहार स्पष्ट होगा। हालांकि, शुरुआती सत्रों में यह बल्लेबाजों के अनुकूल दिखाई दी है।

2025 के सीजन में पंजाब किंग्स अपने अधिकांश होम मैच इस स्टेडियम में खेलेगी, जबकि कुछ मैच धर्मशाला के HPCA स्टेडियम में आयोजित होंगे।

एचपीसीए स्टेडियम, धर्मशाला

हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन स्टेडियम, धर्मशाला में स्थित है और पंजाब किंग्स का दूसरा होम ग्राउंड है। 2003 में स्थापित इस स्टेडियम में 25,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

यह दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट स्टेडियम है, जो समुद्र तल से 1,457 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसके पृष्ठभूमि में बर्फ से ढके हिमालय पर्वत की विहंगम दृश्य के कारण, यह दुनिया के सबसे खूबसूरत क्रिकेट स्टेडियमों में से एक माना जाता है।

ऊंचाई के कारण, यहां की पिच तेज गेंदबाजों को अतिरिक्त उछाल और स्विंग प्रदान करती है। साथ ही, पतली हवा में गेंद अधिक दूर तक जाती है, जिससे बल्लेबाजों को बड़े शॉट लगाने में मदद मिलती है।

धर्मशाला में IPL मैच हमेशा आकर्षण का केंद्र रहे हैं और दर्शकों को खेल के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने का मौका मिलता है।

डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी एसीए-वीडीसीए क्रिकेट स्टेडियम, विशाखापत्तनम

विशाखापत्तनम में स्थित डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी एसीए-वीडीसीए स्टेडियम दिल्ली कैपिटल्स का दूसरा होम ग्राउंड है। 2003 में स्थापित इस स्टेडियम में 25,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

यह स्टेडियम आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के नाम पर है। समुद्र के करीब स्थित होने के कारण यहां की पिच पर तेज गेंदबाजों को कुछ मदद मिलती है, विशेष रूप से शाम के समय।

इस स्टेडियम में पहले भी कई IPL मैच आयोजित किए गए हैं और 2025 के सीजन में दिल्ली कैपिटल्स अपने कुछ होम मैच यहां खेलेगी।

बरसापारा क्रिकेट स्टेडियम, गुवाहाटी

असम के गुवाहाटी में स्थित बरसापारा क्रिकेट स्टेडियम (जिसे डॉ. भूपेन हजारिका क्रिकेट स्टेडियम के नाम से भी जाना जाता है) राजस्थान रॉयल्स का दूसरा होम ग्राउंड है। 2012 में स्थापित इस स्टेडियम में 40,000 दर्शकों के बैठने की क्षमता है।

यह उत्तर-पूर्व भारत का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है और 2017 में यहां फ्लडलाइट्स स्थापित की गईं। असम में क्रिकेट के प्रति बढ़ते उत्साह को देखते हुए, राजस्थान रॉयल्स ने इसे अपना दूसरा होम ग्राउंड बनाया है।

इस स्टेडियम की पिच बल्लेबाजों और गेंदबाजों दोनों के लिए संतुलित है। उत्तर-पूर्व के क्रिकेट प्रेमी दर्शकों के उत्साह के कारण यहां का माहौल हमेशा शानदार रहता है।

2025 के सीजन में राजस्थान रॉयल्स अपने कुछ होम मैच इस स्टेडियम में खेलेगी, जिससे उत्तर-पूर्व के क्रिकेट प्रेमियों को IPL का रोमांच देखने का मौका मिलेगा।

अंत में…

तो ये सभी स्टेडियम केवल आईपीएल के मैच ही आयोजित नहीं करते बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मैचों को भी आयोजित करते हैं। इन सभी स्टेडियमों में कई अंतर्राष्ट्रीय मैच भी आयोजित हो चुके हैं। ये सभी स्टेडियम भारत की क्रिकेट विरासत को संजोए हैं, और उसे आगे बढा़ने के वाहक है।

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हिमाचल का अज़ूबा मासरूर रॉक कट मंदिर एक चट्टान से बना अद्भुत स्मारक (Masroor Rock cut temple)

Masroor rock cut temple in Himachal Pradesh

Masroor Rock Cut Temple

इस पोस्ट बात करेंगे भारत के एक ऐसे अनोखे स्थान की जिसे अक्सर ‘उत्तर का अजंता-एलोरा’ कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश की सुंदर वादियों में छिपा है मसरूर मंदिर (Masroor Rock cut Temple) एक ऐसा अद्भुत स्मारक जो एक ही विशाल चट्टान से उकेरा गया है।

इस वीडियो में हम जानेंगे इस अद्भुत मंदिर के इतिहास, वास्तुकला और उन रहस्यों के बारे में जो इसे भारत के सबसे कम ज्ञात लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों में से एक बनाते हैं।

भौगोलिक स्थिति और परिचय

मासरूर मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में, धौलाधर पर्वत श्रृंखला की तलहटी में स्थित है। कांगड़ा शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर और दिल्ली से करीब 500 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर अपने आप में एक अजूबा है। इसकी सटीक स्थिति उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्र में होने के कारण, यहां तक पहुंचना आज भी एक साहसिक यात्रा जैसा है।

मासरूर को “मासरूर रॉक कट टेम्पल” या “मासरूर मोनोलिथिक टेम्पल” के नाम से भी जाना जाता है। इसका सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि यह पूरा परिसर एक ही विशाल चट्टान से बनाया गया है – बिल्कुल वैसे ही जैसे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध अजंता-एलोरा की गुफाएं।

ऐतिहासिक महत्व

मासरूर मंदिर का निर्माण अनुमानित रूप से 8वीं शताब्दी में हुआ था, जब उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद स्थानीय राजवंशों का उदय हो रहा था। इस क्षेत्र पर तब कर्कोट वंश का शासन था, और माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण उनके संरक्षण में हुआ था।

इतिहासकारों के अनुसार, यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और हिंदू मंदिर वास्तुकला के नागर शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। परंतु इसकी वास्तुकला में बौद्ध प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं, जो इस क्षेत्र में विभिन्न धार्मिक परंपराओं के सह-अस्तित्व का प्रमाण है।

यह भी माना जाता है कि मासरूर मंदिर का निर्माण कभी पूरा नहीं हुआ था। 8वीं शताब्दी के अंत में इस क्षेत्र पर हुए आक्रमणों के कारण शायद निर्माण कार्य अधूरा छोड़ना पड़ा था। इसलिए यहां कुछ भाग अर्ध-निर्मित अवस्था में हैं, जो इस स्थल को और भी रहस्यमय बनाते हैं।

वास्तुकला का अद्भुत नमूना

मासरूर मंदिर की वास्तुकला अपने आप में एक अद्भुत कला का नमूना है। पूरा परिसर एक 160 फुट x 105 फुट आकार की एकल चट्टान से निर्मित है। इसमें मुख्य मंदिर, छोटे मंदिर, विशाल आंगन, जलाशय और अन्य संरचनाएं शामिल हैं।

मुख्य मंदिर एक शिखर युक्त संरचना है जो लगभग 15 मीटर ऊंची है। इसके बाहरी हिस्से पर विभिन्न हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां उकेरी गई हैं। मंदिर के अंदर एक गर्भगृह है जहां शिवलिंग स्थापित था, जो अब नष्ट हो चुका है।

मंदिर परिसर के चारों ओर छोटे-छोटे 14 अन्य मंदिर भी खुदे हुए हैं, जिनमें से अधिकांश अर्ध-निर्मित अवस्था में हैं। इनकी व्यवस्था एक विशेष ज्यामितीय पैटर्न में की गई है, जो प्राचीन हिंदू वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित है।

मंदिर परिसर में एक जलाशय भी है, जो संभवतः धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उपयोग किया जाता था। यह जलाशय भी उसी चट्टान से उकेरा गया है और एक प्राचीन जल संचयन प्रणाली का हिस्सा प्रतीत होता है।

मासरूर पहुँचने का सबसे अच्छा समय

मासरूर मंदिर की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय मार्च से जून और सितंबर से नवंबर के बीच है। इस दौरान मौसम सुहावना रहता है और मंदिर के दृश्य स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। बरसात के मौसम में भारी बारिश होने के कारण यहां के रास्ते फिसलन भरे हो जाते हैं और सर्दियों में धौलाधार पर्वत श्रृंखला पर बर्फबारी होती है, जिससे यात्रा मुश्किल हो सकती है।

शिल्पकला और मूर्तियां

मासरूर मंदिर की शिल्पकला इसके सबसे आकर्षक पहलुओं में से एक है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर विभिन्न हिंदू देवी-देवताओं, गंधर्वों, अप्सराओं और पौराणिक प्राणियों की मूर्तियां उकेरी गई हैं। इन मूर्तियों में शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और अन्य देवताओं के चित्रण देखे जा सकते हैं।

विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं मंदिर के बाहरी हिस्से पर बने नटराज शिव की मूर्ति और द्वारपालों (द्वार के रक्षकों) के रूप में उकेरे गए विशालकाय मूर्तियां। इनकी शैली गुप्त काल और पोस्ट-गुप्त काल की कला शैली का मिश्रण प्रतीत होती है।

मंदिर के अंदर के स्तंभों और छत पर भी जटिल नक्काशी की गई है, जिसमें ज्यामितीय पैटर्न और फूल-पत्तियों के डिजाइन शामिल हैं। इन सभी नक्काशियों को केवल छेनी और हथौड़े जैसे प्राचीन उपकरणों का उपयोग करके बनाया गया था, जो उस समय के कारीगरों के कौशल और धैर्य का प्रमाण है।

मासरूर रॉक-कट मंदिर की कला – महत्वपूर्ण तत्त्व और मार्गदर्शन

मासरूर मंदिर की कला का अध्ययन करने पर हमें कई महत्वपूर्ण तत्व नज़र आते हैं:

  1. परिभ्रमण पथ: मंदिर के मुख्य संरचना के चारों तरफ एक परिभ्रमण पथ है जिस पर चलकर भक्त पूरे मंदिर का दर्शन कर सकते हैं।
  2. मंडप और गर्भगृह: मंदिर का मुख्य भाग एक मंडप और गर्भगृह से बना है, जिसमें पहले शिवलिंग स्थापित था।
  3. पंचायतन शैली: मंदिर की संरचना पंचायतन शैली पर आधारित है, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों ओर चार छोटे मंदिर हैं।
  4. शिखर (स्पाइर): मुख्य मंदिर पर एक भव्य शिखर है जो नागर शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  5. जल संरचना: मंदिर परिसर में एक कृत्रिम जलाशय है जो प्राचीन जल संचयन प्रणाली का प्रमाण है।
  6. मूर्तिकला: मंदिर की दीवारों पर विविध देवी-देवताओं, नर्तकियों, संगीतकारों और पौराणिक प्राणियों की मूर्तियां हैं।
  7. स्तंभ: मंदिर के मंडप में कलात्मक स्तंभ हैं जिन पर जटिल नक्काशी की गई है।
  8. द्वारपाल: मंदिर के प्रवेश द्वार पर विशाल द्वारपाल मूर्तियां हैं जो मंदिर की रक्षा करते प्रतीत होते हैं।
  9. कमलपुष्प अलंकरण: मंदिर की छत और स्तंभों पर कमल के फूल के डिजाइन हैं जो प्राचीन भारतीय कला का महत्वपूर्ण तत्व है।
  10. तोरण: मंदिर के प्रवेश द्वार पर सुंदर तोरण बना है जिस पर कलात्मक नक्काशी है।
  11. जालीदार खिड़कियां: मंदिर में जालीदार खिड़कियां हैं जो प्राकृतिक प्रकाश और हवा के प्रवाह को अनुमति देती हैं।
  12. मकर और व्याल: मंदिर की बाहरी दीवारों पर मकर (पौराणिक जलीय प्राणी) और व्याल (सिंह जैसे पौराणिक प्राणी) की मूर्तियां हैं।
  13. नृत्य मुद्राएं: कई मूर्तियां विभिन्न नृत्य मुद्राओं में हैं जो तत्कालीन कला और संस्कृति का प्रदर्शन करती हैं।
  14. वनस्पति और पशु मोटिफ्स: मंदिर के अलंकरण में विभिन्न वनस्पति और पशु मोटिफ्स का प्रयोग किया गया है।

वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग पहलू

मासरूर मंदिर का निर्माण न केवल कलात्मक दृष्टि से बल्कि इंजीनियरिंग के नजरिये से भी अद्भुत है। एक ही विशाल चट्टान से इतनी जटिल संरचना को उकेरना, वह भी बिना आधुनिक उपकरणों के, एक असाधारण उपलब्धि है।

प्राचीन भारतीय शिल्पकारों ने सबसे पहले मंदिर की संपूर्ण योजना बनाई होगी, फिर ऊपर से नीचे की ओर काम करते हुए चट्टान को काटा होगा। इस प्रक्रिया में एक छोटी सी गलती भी पूरी परियोजना को असफल कर सकती थी।

मंदिर में एक जटिल जल निकासी प्रणाली भी है जो वर्षा जल को संग्रहित करती है और मंदिर परिसर को बाढ़ से बचाती है। यह प्रणाली आज भी कार्यशील है, जो प्राचीन भारतीय इंजीनियरों की दूरदर्शिता का प्रमाण है।

मासरूर मंदिर परिसर में और उसके आसपास घूमने लायक जगहें

  1. तांडरानी झरना (4.4 किमी): मंदिर से मात्र 4.4 किमी दूर स्थित यह प्राकृतिक झरना एक शांत स्थान है। इस झरना के आसपास घने जंगल हैं और इसका दृश्य बहुत ही मनोरम है।
  2. बैजनाथ शिव मंदिर (13 किमी): बैजनाथ का प्रसिद्ध शिव मंदिर 13 किमी की दूरी पर है और पंडित की वास्तुकला की एक उत्कृष्ट मिसाल है।
  3. दशई गांव (सबसे निकट गांव) (1.5 किमी): मंदिर के पास का गांव जहां से स्थानीय संस्कृति और जीवनशैली को समझा जा सकता है।
  4. गोला मैदान और माउंट बीआर (33 किमी): पालमपुर में स्थित यह चाय बागानों के लिए प्रसिद्ध है। यहां से धौलाधर पर्वत श्रृंखला के अद्भुत दृश्य देखे जा सकते हैं।
  5. कांगड़ा दुर्ग (32 किमी): भारत के सबसे पुराने किलों में से एक, जो एक पहाड़ी पर खड़ा है और अब खंडहर की स्थिति में है।
  6. नैनतिपु (15 किमी): यहां से धौलाधर पर्वतमाला का अद्भुत दृश्य दिखाई देता है और यह प्रकृति प्रेमियों के लिए एक आकर्षक स्थान है।
  7. बीजू की माडी (32 किमी): पहाड़ों के बीच स्थित एक खूबसूरत झील जो पिकनिक के लिए आदर्श है।
  8. न्यू मंदिर (0.5 किमी): मासरूर मंदिर के पास ही एक नया मंदिर है जहां आज भी पूजा-अर्चना होती है।
  9. धमेटा वासुकी नाग मंदिर (15 किमी): हिमाचल प्रदेश के इस प्रसिद्ध नाग मंदिर में अनेक भक्त आते हैं।
  10. बैर मंदिर (24 किमी): कांगड़ा के पास स्थित यह प्राचीन मंदिर है।

मासरूर रॉक-कट मंदिर तक कैसे पहुंचें?

हवाईमार्ग से:

निकटतम हवाई अड्डा गग्गल (धर्मशाला) है, जो मासरूर से लगभग 30 किमी दूर है। दिल्ली से धर्मशाला के लिए नियमित उड़ानें हैं। हवाई अड्डे से, आप टैक्सी या किराए की कार से मासरूर जा सकते हैं।

रेल से:

पठानकोट हिमाचल प्रदेश का निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन है और यहां से मासरूर लगभग 85 किमी दूर है। कांगड़ा छोटा रेलवे स्टेशन है जो मासरूर से 40 किमी दूर है। कांगड़ा पहुंचने के लिए पठानकोट से नैरो गेज रेल है जो हिमालय के सुंदर दृश्यों के बीच से गुजरती है।

सड़क मार्ग:

कांगड़ा से मासरूर 40 किमी दूर है, जबकि धर्मशाला से यह लगभग 35 किमी की दूरी पर है। दोनों स्थानों से नियमित बस और टैक्सी सेवाएं उपलब्ध हैं। यदि आप अपनी कार से यात्रा कर रहे हैं, तो पंजाब और हिमाचल प्रदेश के मार्ग से जा सकते हैं।

मासरूर मंदिर में करने योग्य चीजें – एक अनमोल गाइड

हिमाचल प्रदेश का यह अनमोल खजाना कई अनुभवों से भरपूर है। यहां कुछ चीजें हैं जो आप मासरूर की यात्रा के दौरान कर सकते हैं:

  1. मंदिर का विस्तृत अन्वेषण: प्राचीन शिल्पकला और वास्तुकला का अध्ययन करें। हर कोने में छिपी कहानियों को समझने की कोशिश करें।
  2. सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा: मंदिर के पास सूर्योदय या सूर्यास्त के समय का दृश्य अद्भुत होता है। पहाड़ों के बीच डूबता या उगता सूरज मंदिर को स्वर्णिम आभा प्रदान करता है।
  3. फोटोग्राफी: मासरूर की अद्भुत वास्तुकला और आसपास के प्राकृतिक दृश्यों की फोटोग्राफी करें। विशेषकर जलाशय में प्रतिबिंबित मंदिर का दृश्य अत्यंत मनोरम होता है।
  4. स्थानीय इतिहास जानें: मंदिर के पास रहने वाले स्थानीय लोगों से बातचीत करके इस मंदिर से जुड़ी लोककथाओं और इतिहास के बारे में जानें।
  5. ध्यान और शांति का अनुभव: मंदिर परिसर में बैठकर प्राचीन ऊर्जा का अनुभव करें। ये स्थान ध्यान के लिए आदर्श है।
  6. पिकनिक का आनंद: मंदिर परिसर के पास जलाशय के किनारे पिकनिक का आनंद लें। प्रकृति के बीच आराम करें।
  7. स्थानीय व्यंजन चखें: आसपास के गांवों में पहाड़ी व्यंजन का स्वाद लें। सिदू, माद्रा, चना मद्रा और अन्य स्थानीय व्यंजन जरूर चखें।
  8. पैदल यात्रा: मंदिर के आसपास के क्षेत्र में छोटी पैदल यात्रा करें। आसपास के जंगल और पहाड़ियों में प्रकृति का आनंद लें।
  9. स्थानीय हस्तशिल्प खरीदें: आसपास के गांवों से स्थानीय हस्तशिल्प और कलाकृतियां खरीदें जो हिमाचली संस्कृति को दर्शाती हैं।

मासरूर मंदिर का अनसुलझा रहस्य

मासरूर मंदिर से जुड़े कई रहस्य आज भी अनसुलझे हैं। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस विशालकाय प्रोजेक्ट को अचानक क्यों छोड़ दिया गया? इतिहासकारों के अनुसार, 8वीं शताब्दी के अंत में हुए आक्रमणों या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण निर्माण रुक गया होगा।

दूसरा रहस्य यह है कि इस क्षेत्र में ऐसा विशिष्ट मंदिर क्यों बनाया गया? अजंता-एलोरा जैसी शैली इस क्षेत्र से हजारों किलोमीटर दूर दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित थी। यह संभव है कि दक्षिण भारतीय कारीगरों को यहां लाया गया हो या स्थानीय शासकों ने दक्षिण की यात्रा के बाद इस शैली से प्रेरित होकर इसे अपनाया हो।

एक अन्य रहस्य मंदिर में पाई जाने वाली कुछ अजीब सुरंगनुमा संरचनाओं से जुड़ा है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ये भूमिगत कक्ष या गुप्त मार्ग हो सकते हैं, जबकि अन्य का मानना है कि ये केवल निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा थे।

चौथा महत्वपूर्ण रहस्य यह है कि मासरूर मंदिर के चट्टानों को काटकर बनाने की प्राचीन तकनीक क्या थी? आज के युग में भी इस तरह का निर्माण कार्य अत्यंत चुनौतीपूर्ण होगा, तो 8वीं शताब्दी में बिना आधुनिक उपकरणों के यह कैसे संभव हुआ? यह प्राचीन भारतीय इंजीनियरिंग का एक अद्भुत उदाहरण है जिसके रहस्य आज भी पूरी तरह से उजागर नहीं हुए हैं।

वर्तमान स्थिति और संरक्षण प्रयास

वर्तमान में, मासरूर मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित राष्ट्रीय महत्व का स्मारक है। हालांकि, इसकी वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। सदियों की प्राकृतिक क्षति, जलवायु परिवर्तन और पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण इस अनमोल धरोहर को खतरा है।

ASI द्वारा इस स्मारक के संरक्षण के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। मंदिर की संरचनात्मक मजबूती सुनिश्चित करने के लिए प्रयोगशाला परीक्षण किए गए हैं और विशेष उपचारात्मक उपाय किए जा रहे हैं।

हिमाचल प्रदेश सरकार भी पर्यटन विभाग के माध्यम से इस स्थल के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए प्रयासरत है। हालांकि, इसकी तुलना में अजंता-एलोरा जैसे प्रसिद्ध स्थलों पर काफी अधिक ध्यान दिया जाता है।

अंत में…

मसरूर रॉक कट मंदिर हिमाचल प्रदेश की अनमोल ऐतिहासिक विरासतों में से एक है। इस ऐतिहासिक विरासत का भ्रमण करना एक अनोखा अनुभव देगा।


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लकड़बग्गा (Hyena) – जंगल का राजा नहीं है, लेकिन सबसे ज़्यादा खतरनाक शिकारी जानवर है। – Hyena – most dangerous animal

Hyena

लकड़बग्घा (Hyena): जंगल का खतरनाक शिकारी

एक ऐसा खतरनाक जानवर की जिसे देखकर अक्सर लोग डर जाते हैं और जिसकी हंसी सुनकर रात में रोंगटे खड़े हो जाते हैं – जी हां, हम बात कर रहे हैं लकड़बग्घा यानी hyena की। क्या आप जानते हैं कि यह दिखने में खतरनाक जानवर कितना चतुर और सामाजिक होता है? आइए जानते हैं इस रहस्यमयी जानवर के बारे में कुछ रोचक तथ्य।

लकड़बग्घा, जंगल का वो शिकारी जिसे अक्सर गलत समझा जाता है। कई लोग इसे गीदड़ या कुत्ते जैसा समझते हैं, लेकिन असल में ये बिल्ली प्रजाति के जानवरों से ज्यादा जुड़ा हुआ है! लकड़बग्घे की हंसी डरावनी जरूर लगती है, लेकिन इसके पीछे छिपे हैं कई हैरान कर देने वाले रहस्य।”

लकड़बग्घा (Hyena) Hyaenidae फैमिली से संबंधित एक मांसाहारी स्तनधारी (Carnivorous Mammal) है। यह जानवर दिखने में भेड़िए जैसा लगता है, लेकिन इसकी अलग ही पहचान है। लकड़बग्घा बिल्ली और कुत्तों की तरह शिकारी तो होता ही है, लेकिन यह एक अद्भुत स्कैवेंजर (Scavenger) भी है, यानी मरे हुए जानवरों को खाकर सफाई करने वाला जीव।

लकड़बग्घा: परिचय और वर्गीकरण

“सबसे पहले ये जानते हैं कि लकड़बग्घा आखिर है क्या? लकड़बग्घा यानि हायना एक मांसाहारी स्तनधारी जानवर है, जो बाहर से थोड़ा कुत्ते जैसा दिखता है। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि ये कुत्तों की फैमिली से बिल्कुल संबंधित नहीं है। लकड़बग्घा हाइएनिडी (Hyaenidae) नाम की अपनी अलग फैमिली से आता है। ये फैमिली मांसाहारी जानवरों के फेलिफोर्मिया समूह का हिस्सा है, जिसमें बिल्लियां और नेवले जैसे जानवर भी शामिल हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि हायना बिल्ली परिवार के बजाय मांगूस परिवार से अधिक निकटता से संबंधित है।

तो अगली बार अगर कोई कहे कि लकड़बग्घा कुत्ता है, तो उसे बता देना कि नहीं, ये तो अपनी अलग पहचान रखता है!”

लकड़बग्घा (Hyena) Hyaenidae फैमिली से संबंधित एक मांसाहारी स्तनधारी (Carnivorous Mammal) है। यह जानवर दिखने में भेड़िए जैसा लगता है, लेकिन इसकी अलग ही पहचान है। लकड़बग्घा बिल्ली और कुत्तों की तरह शिकारी तो होता ही है, लेकिन यह एक अद्भुत स्कैवेंजर (Scavenger) भी है, यानी मरे हुए जानवरों को खाकर सफाई करने वाला जीव।

लकड़बग्घों का इतिहास

लकड़बग्घों का इतिहास लगभग 22 मिलियन वर्ष पुराना है। जीवाश्म रिकॉर्ड से पता चलता है कि प्राचीन समय में लकड़बग्घों की 100 से अधिक प्रजातियां थीं, जो यूरोप, एशिया, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका में पाई जाती थीं। उस समय लकड़बग्घे आकार में बहुत बड़े और ज्यादा शक्तिशाली हुआ करते थे, समय के साथ ये जीव बदलते गए और आज हमें लकड़बग्घों की कुछ ही प्रजातियां देखने को मिलती हैं।” हालांकि, आज केवल चार प्रजातियां ही बची हैं।

लकड़बग्घों की प्रजातियां

वर्तमान में लकड़बग्घों की चार प्रजातियां हैं:

  1. धब्बेदार हायना (Spotted Hyena): यह सबसे बड़ी और सबसे आम प्रजाति है, जिसे ‘हंसने वाला हायना’ भी कहा जाता है।
  2. भूरा हायना (Brown Hyena): दक्षिणी अफ्रीका में पाया जाता है, इसके शरीर पर लंबे भूरे बाल होते हैं।
  3. धारीदार हायना (Striped Hyena): उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व और भारत में पाया जाता है।
  4. अर्डवुल्फ (Aardwolf): यह सबसे छोटी प्रजाति है जो मुख्य रूप से दीमक खाती है।

लकड़बग्गे (Hyena) कहाँ पाए जाते हैं?

“लकड़बग्घे मुख्य रूप से अफ्रीका के जंगलों, सवाना और रेगिस्तानों में पाए जाते हैं। इसके अलावा, ये दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व के कुछ हिस्सों में भी देखने को मिलते हैं। भारत में इन्हें राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के जंगलों में देखा जा सकता है।”

लकड़बग्घे मुख्य रूप से अफ्रीका महाद्वीप में पाए जाते हैं। धब्बेदार हायना सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में सभी अफ्रीकी सवाना और घास के मैदानों में पाए जाते हैं। धारीदार हायना उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका, साथ ही मध्य पूर्व और भारतीय उपमहाद्वीप तक फैले हुए हैं। भूरे हायना दक्षिण अफ्रीका के शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं।

भारत में, धारीदार लकड़बग्घा गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में पाया जाता है, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम हो गई है। भारत में ये जंगल और पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, लेकिन इंसानों से दूर ही रहना पसंद करते हैं। तो अगर आप जंगल में घूम रहे हों और अचानक हंसी जैसी आवाज सुनाई दे, तो समझ जाइए कि शायद लकड़बग्घा पास में ही है!”

लकड़बग्घों का शारीरिक बनावट

लकड़बग्घे का शरीर विशेष रूप से शिकार करने और हड्डियां चबाने के लिए बना है:

  • शरीर का आकार: अलग-अलग प्रजातियों के अनुसार, लकड़बग्घे का वजन 10 से 80 किलोग्राम तक हो सकता है।
  • मजबूत जबड़े: लकड़बग्घे का जबड़ा इतना शक्तिशाली होता है कि वह हड्डियों को भी आसानी से चबा सकता है। एक धब्बेदार हायना के जबड़े का दबाव लगभग 1100 पाउंड प्रति वर्ग इंच होता है, जो शेर के जबड़े से भी ज्यादा मजबूत है!
  • अग्र पैर लंबे: लकड़बग्घे के अगले पैर पिछले पैरों की तुलना में लंबे होते हैं, जिससे उनकी पीठ ढलवां दिखती है।
  • विशेष दांत: उनके दांत विशेष रूप से हड्डियों को चबाने के लिए अनुकूलित हैं।
  • रंग: धब्बेदार हायना भूरे-पीले रंग के होते हैं जिन पर काले धब्बे होते हैं, जबकि धारीदार हायना भूरे या हल्के रंग के होते हैं जिन पर काली धारियां होती हैं।

लकड़बग्घों का स्वभाव और सामाजिक संरचना

“लकड़बग्घे का स्वभाव बड़ा ही अनोखा है। लोग इसे डरपोक समझते हैं, लेकिन सच ये है कि ये बेहद चालाक और मौकापरस्त होता है। ये ज्यादातर रात में सक्रिय रहते हैं, यानी ये निशाचर हैं। लकड़बग्घे अकेले भी शिकार करते हैं, लेकिन झुंड में रहना इन्हें ज्यादा पसंद है। इनके समूह को ‘क्लैन’ कहते हैं, जिसमें 10 से लेकर 80 तक लकड़बग्घे हो सकते हैं। खास बात ये है कि चित्तीदार लकड़बग्घे के क्लैन में मादाएं बॉस होती हैं। जी हां, ये एक मादा प्रधान समाज है, जहां नर को मादा की बात माननी पड़ती है। इनका स्वभाव बेहद आक्रामक होता है, और ये शेरों से भी लोहा लेने से नहीं घबराते!”

  • सामाजिक जीवन: धब्बेदार हायना अत्यधिक सामाजिक होते हैं और ‘क्लैन’ नामक समूहों में रहते हैं, जिनमें 80 तक सदस्य हो सकते हैं।
  • मादा प्रधान समाज: धब्बेदार हायना का समाज मादा प्रधान होता है, जहां मादाएं नर से बड़ी और अधिक आक्रामक होती हैं।
  • बुद्धिमान शिकारी: हायना अत्यंत बुद्धिमान होते हैं और जटिल सामाजिक और शिकार रणनीतियां बनाते हैं।
  • अपना क्षेत्र: हायना अपने क्षेत्र को चिह्नित करने के लिए एक विशेष गंध का उपयोग करते हैं जिसे वे अपनी एनल ग्रंथियों से निकालते हैं।

लकड़बग्घे का भोजन

“लकड़बग्घे मांसाहारी होते हैं और ज्यादातर शिकार करके या मरे हुए जानवरों का मांस खाकर जिंदा रहते हैं। हालांकि, लोग इन्हें सिर्फ मरे हुए जानवर खाने वाला जीव मानते हैं, लेकिन हकीकत में ये खुद भी शिकार करने में माहिर होते हैं। इनका पाचन तंत्र इतना ताकतवर होता है कि ये हड्डियों को भी आसानी से पचा सकते हैं!”

“लकड़बग्घों को अक्सर ‘स्कैवेंजर्स’ यानी मृत जानवर खाने वाला समझा जाता है, लेकिन सच्चाई ये है कि ये खुद भी बेहद खतरनाक शिकारी होते हैं! इनका मुख्य भोजन ज़ेबरा, वाइल्डबीस्ट और यहाँ तक कि बड़े जानवरों जैसे जिराफ के बच्चे भी हो सकते हैं! इनके जबड़े इतने मजबूत होते हैं कि ये हड्डियों को भी चट कर जाते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक, हाइना का जबड़ा शेर से भी ज्यादा पावरफुल होता है!”

  • मांसाहारी: धब्बेदार हायना अपने भोजन का 95% खुद शिकार करके प्राप्त करते हैं।
  • विविध आहार: वे जेब्रा, विलडेबीस्ट, गैज़ेल और अन्य मध्यम आकार के स्तनधारियों का शिकार करते हैं।
  • हड्डियों का सेवन: हायना अपने शिकार की हड्डियों को भी खा जाते हैं, जिससे उनके मल में सफेद रंग दिखाई देता है – इसी कारण उन्हें प्राचीन काल में “पालतू सफेद” कहा जाता था।
  • अर्डवुल्फ का आहार: चौथी प्रजाति अर्डवुल्फ मुख्य रूप से दीमक खाती है और एक रात में 20,000 तक दीमक खा सकती है!

लकड़बग्घे की विशेष ध्वनि

लकड़बग्घे की हंसी जैसी आवाज़ अक्सर लोगों को डराती है:

  • हंसी जैसी आवाज़: धब्बेदार हायना “हूप-हूप-हूप” जैसी आवाज़ निकालते हैं जो मानव हंसी की तरह लगती है।
  • संचार: यह आवाज़ क्लैन के सदस्यों के बीच संचार का माध्यम है और अलग-अलग ध्वनियां अलग-अलग संदेश देती हैं।
  • दूरी: हायना की आवाज़ 5 किलोमीटर तक सुनी जा सकती है!

“क्या आपने कभी हाइना की हँसी सुनी है? ये आवाज़ सुनकर लगता है जैसे कोई शैतान हँस रहा हो! लेकिन असल में ये हँसी नहीं, बल्कि हाइना की एक खास कम्युनिकेशन स्टाइल है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, हाइना इस तरह की आवाज़ से अपने ग्रुप को सिग्नल देता है कि उसने शिकार ढूंढ लिया है या फिर कोई खतरा नजदीक है। हर हाइना की हँसी अलग होती है, जिससे उसकी पहचान की जा सकती है!”

लकड़बग्घे का प्रजनन और जीवन काल

  • गर्भकाल: धब्बेदार हायना में गर्भकाल लगभग 110 दिन का होता है।
  • अनोखा प्रजनन अंग: मादा धब्बेदार हायना के पास एक विशेष प्रजनन अंग होता है जो दिखने में नर के अंग जैसा होता है।
  • बच्चे: आमतौर पर एक या दो बच्चे जन्म लेते हैं, जो जन्म के समय से ही दांत और खुली आंखों के साथ होते हैं।
  • जीवन काल: जंगली हायना 12-15 साल तक जीवित रहते हैं, जबकि चिड़ियाघरों में वे 25 साल तक जी सकते हैं।

लकड़बग्घे से जुड़े अनोखे तथ्य

  1. धब्बेदार हायना का मस्तिष्क कार्निवोरा परिवार के अन्य जानवरों की तुलना में बड़ा होता है, जो उनकी उच्च बुद्धिमत्ता को दर्शाता है।
  2. हायना के दूध में कैल्शियम की मात्रा घरेलू गाय के दूध से चार गुना अधिक होती है।
  3. उनके पाचन तंत्र में मजबूत एसिड होता है जो उन्हें सड़े हुए मांस से होने वाले संक्रमण से बचाता है।
  4. कई अफ्रीकी संस्कृतियों में लकड़बग्घे को जादू-टोने और अलौकिक शक्तियों से जोड़ा जाता है।
  5. जब हायना खुश होते हैं या समूह के सदस्यों से मिलते हैं, तो वे कुत्तों की तरह अपनी पूंछ हिलाते हैं।
  6. लकड़बग्घों की हड्डियाँ इतनी मजबूत होती हैं कि वे 1,100 PSI (पाउंड प्रति वर्ग इंच) की बाइट फ़ोर्स से हड्डियाँ चबा सकते हैं।
  7. लकड़बग्घे हंसने जैसी आवाज़ निकालते हैं, इसीलिए इन्हें “Laughing Hyena” भी कहा जाता है।
  8. एक झुंड में 80 से ज्यादा लकड़बग्घे हो सकते हैं, और उनकी नेता एक मादा होती है।
  9. लकड़बग्घे की औसत उम्र 12 से 15 साल होती है, लेकिन कैद में यह 20 साल तक जी सकते हैं।
  10. इनके झुंड में मादाएं नर से ज्यादा शक्तिशाली होती हैं, और उनका शरीर भी बड़ा होता है।
  11. इनकी गंध सूंघने की क्षमता बहुत तेज होती है और यह 10 किलोमीटर दूर से ही शिकार सूँघ सकते हैं।
  12. लकड़बग्घे आमतौर पर रात में शिकार करते हैं और बहुत ही शांत तरीके से अपने शिकार पर हमला करते हैं।
  13. लकड़बग्घे की काटने की ताकत किसी भी बड़े शिकारी से ज्यादा होती है, यहां तक कि शेर से भी!
  14. ये 50 किमी/घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते हैं और अपने शिकार का पीछा घंटों तक कर सकते हैं।
  15. इनके जबड़े इतने मजबूत होते हैं कि ये किसी भी हड्डी को चबा सकते हैं।
  16. ये जानवर बहुत बुद्धिमान होते हैं और इनकी झुंड रणनीतियां बेहद प्रभावशाली होती हैं।

लकड़बग्घों का संरक्षण स्थिति

धब्बेदार और धारीदार हायना को IUCN रेड लिस्ट में “लीस्ट कंसर्न” श्रेणी में रखा गया है, जबकि भूरे हायना को “नियर थ्रेटेन्ड” माना जाता है। भारत में, धारीदार हायना संरक्षित प्रजाति है और इसका शिकार करना गैरकानूनी है।

अंत में…

यह थी लकड़बग्घा यानी हायना की रोचक दुनिया। आज हमने जाना कि कैसे यह जानवर, जिसे अक्सर गलत समझा जाता है, वास्तव में एक बुद्धिमान, सामाजिक और पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला प्राणी है। अगली बार जब आप लकड़बग्घे की हंसी सुनें, तो याद रखिएगा कि वह सिर्फ हंसी नहीं बल्कि उनके जटिल सामाजिक जीवन का हिस्सा है।


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माचू पिच्चू – इंका साम्राज्य का खोया हुआ शहर – Machu Picchu – The lost city of the Incas

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इंका साम्राज्य का खोया हुआ शहर – स्वर्ग जैसा खूबसूरत (Machu Picchu – The lost city of the Incas)

आज हम आपको ले जा रहे हैं दुनिया के एक ऐसे रहस्यमयी स्थान पर, जिसे ‘धरती का स्वर्ग’ भी कहा जाता है। हम बात कर रहे हैं दक्षिण अमेरिका के देश पेरू में स्थित माचू पिच्चू की (Machu Picchu – The lost city of the Incas) । हाँ, वही माचू पिच्चू जिसकी तस्वीरें आपने कई बार देखी होंगी – पहाड़ों के बीच बसा एक प्राचीन शहर, जो बादलों से घिरा हुआ है।

क्या आपने कभी सोचा है कि पहाड़ों की इतनी ऊँचाई पर, इतना विशाल और खूबसूरत शहर कैसे बनाया गया होगा? वो भी तब, जब न तो आधुनिक मशीनें थीं और न ही आधुनिक तकनीक? आज हम जानेंगे माचू पिच्चू के इतिहास, इसकी संस्कृति, इसके रहस्य और यहाँ तक पहुँचने के तरीके के बारे में।

भौगोलिक स्थिति 

माचू पिच्चू पेरू के कुज़्को शहर से लगभग 80 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। यह समुद्र तल से लगभग 2,430 मीटर की ऊँचाई पर एंडीज पर्वत श्रृंखला में स्थित है। यहाँ से उरुबांबा नदी की घाटी का नज़ारा देखना किसी स्वर्ग से कम नहीं है।

माचू पिच्चू की स्थिति इतनी विशेष है कि यह दशकों तक दुनिया से छिपा रहा। चारों ओर से घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों से घिरा होने के कारण, इसे इंकाओं का ‘खोया हुआ शहर’ भी कहा जाता है। इसकी स्थिति इतनी रणनीतिक है कि स्पेनिश आक्रमणकारियों ने कभी इसे खोज नहीं पाया, जबकि वे इंका साम्राज्य के अन्य हिस्सों पर कब्जा कर चुके थे।

इतिहास और खोज

माचू पिच्चू का निर्माण 15वीं सदी में इंका साम्राज्य के दौरान हुआ था। माना जाता है कि इसे इंका सम्राट पचाकुटेक ने बनवाया था, जो 1438 से 1471 तक शासन किया था। इस शहर का निर्माण राजसी निवास के रूप में किया गया था, जहाँ केवल 750 से 1,200 लोग रहते थे।

लेकिन जब 16वीं सदी में स्पेनिश आक्रमणकारी पेरू पहुँचे, तब तक माचू पिच्चू वासियों ने इस जगह को छोड़ दिया था। इसका कारण अभी भी एक रहस्य है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चेचक जैसी बीमारियों के प्रकोप के कारण लोगों ने शहर छोड़ दिया, जबकि अन्य का मानना है कि यह एक रणनीतिक फैसला था।

माचू पिच्चू की आधुनिक खोज का श्रेय अमेरिकी इतिहासकार हीराम बिंघम को जाता है, जिन्होंने 1911 में इसे दुनिया के सामने लाया। मज़ेदार बात यह है कि बिंघम वास्तव में एक अन्य इंका शहर विल्कबम्बा की खोज में थे, लेकिन एक स्थानीय किसान के मार्गदर्शन से वे माचू पिच्चू पहुँच गए।

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माचू पिच्चू की विशेषताएँ 

माचू पिच्चू की सबसे आश्चर्यजनक विशेषता है इसका वास्तुशिल्प। यहाँ की इमारतें बिना किसी सीमेंट या मोर्टार के केवल पत्थरों को इस तरह काटकर बनाई गई हैं कि उनके बीच एक पतली सुई भी नहीं जा सकती। इंका लोग इस तकनीक में इतने माहिर थे कि आज भी वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे हैं।

माचू पिच्चू में लगभग 200 इमारतें हैं, जो मुख्य रूप से मंदिर, महल और घरों में विभाजित हैं। यहाँ का सूर्य मंदिर, तीन खिड़कियों वाला मंदिर और इंतीवाटाना पत्थर (जिसका अर्थ है ‘सूरज को बाँधने का स्थान’) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।

इंतीवाटाना एक सूर्य घड़ी के रूप में कार्य करता था और इंका ज्योतिषियों को मौसम के बदलाव और फसल के समय को निर्धारित करने में मदद करता था। इसके अलावा, माचू पिच्चू में जल प्रबंधन की एक अद्भुत प्रणाली है, जिसमें 16 से अधिक फव्वारे हैं जो आज भी काम करते हैं!

रहस्य और मान्यताएँ 

माचू पिच्चू के कई रहस्य हैं जो आज भी अनसुलझे हैं। सबसे बड़ा रहस्य है – इसका उद्देश्य क्या था? कुछ विद्वान मानते हैं कि यह एक धार्मिक स्थल था, कुछ का मानना है कि यह एक राजसी आराम का स्थान था, जबकि अन्य का मानना है कि यह एक वैज्ञानिक केंद्र था।

दूसरा बड़ा रहस्य है – इसे अचानक क्यों छोड़ दिया गया? इंका साम्राज्य के पतन के समय, माचू पिच्चू के निवासियों ने इसे क्यों छोड़ा, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

एक अन्य दिलचस्प तथ्य यह है कि माचू पिच्चू खगोलीय रूप से महत्वपूर्ण है। यहाँ की कई इमारतें सूर्य, चंद्रमा और तारों के मार्ग के अनुसार बनाई गई हैं। इससे पता चलता है कि इंका लोग खगोल विज्ञान में कितने उन्नत थे।

कई लोग मानते हैं कि माचू पिच्चू एक ऊर्जावान स्थान है। यहाँ आने वाले कई पर्यटक बताते हैं कि उन्हें यहाँ एक अलग प्रकार की ऊर्जा और शांति का अनुभव होता है।

संस्कृति और लोग 

माचू पिच्चू इंका सभ्यता का एक जीवंत प्रमाण है। इंका लोग अपनी उन्नत वास्तुकला, कृषि प्रणाली और सामाजिक संगठन के लिए जाने जाते थे। वे सूर्य की पूजा करते थे और उन्होंने अपने साम्राज्य को ‘सूर्य का साम्राज्य’ कहा।

इंका लोगों की भाषा क्वेचुआ थी, जो आज भी पेरू के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। उन्होंने ‘किपु’ नामक एक अनोखी लिखित प्रणाली विकसित की थी, जिसमें रंगीन धागों और गाँठों का उपयोग किया जाता था।

आज माचू पिच्चू के आसपास के क्षेत्र में क्वेचुआ लोग रहते हैं, जो इंका लोगों के वंशज हैं। वे अपनी परंपराओं और संस्कृति को आज भी जीवित रखे हुए हैं। उनके रंगीन कपड़े, पारंपरिक संगीत और नृत्य, और उनका खाना – सभी इंका विरासत का हिस्सा हैं।

माचू पिच्चू की यात्रा

अगर आप माचू पिच्चू की यात्रा करना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको पेरू के लिमा शहर पहुँचना होगा। वहाँ से आप कुज़्को जा सकते हैं, जो इंका साम्राज्य की प्राचीन राजधानी थी।

कुज़्को से आप अगुआस कालिएंटेस (जिसे अब माचू पिच्चू पुएब्लो कहा जाता है) तक ट्रेन से जा सकते हैं। यह यात्रा खुद में एक अद्भुत अनुभव है, क्योंकि ट्रेन आपको खूबसूरत पहाड़ों और घाटियों के बीच से ले जाती है।

अगुआस कालिएंटेस से आप बस से माचू पिच्चू तक जा सकते हैं। लेकिन अगर आप साहसी हैं, तो इंका ट्रेल पर चलकर भी माचू पिच्चू पहुँच सकते हैं। यह चार दिन का ट्रेक है, जो आपको प्राचीन इंका मार्ग से ले जाता है।

याद रखें, माचू पिच्चू एक संरक्षित स्थल है और यहाँ पर्यटकों की संख्या सीमित है। इसलिए अपनी यात्रा से पहले टिकट बुक करना न भूलें।

समापन 

माचू पिच्चू सिर्फ एक प्राचीन शहर नहीं है; यह इंका सभ्यता की उत्कृष्टता का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि हजारों साल पहले, बिना आधुनिक तकनीक के, मानव गेनियस क्या हासिल कर सकता था।

2007 में, माचू पिच्चू को दुनिया के सात नए अजूबों में से एक चुना गया था, और यह पूरी तरह से हकदार है। यह न केवल पेरू की, बल्कि पूरी मानवता की विरासत है।

अगर आप कभी माचू पिच्चू जाते हैं, तो याद रखें कि आप सिर्फ एक जगह की यात्रा नहीं कर रहे हैं; आप एक समय यात्रा कर रहे हैं, एक ऐसी सभ्यता में, जिसने अपने ज्ञान और कौशल से दुनिया को चकित कर दिया।


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IPL की उन 5 टीमों की कहानी, जो अब इस टूर्नामेंट का हिस्सा नहीं है। -Story of 5 former IPL teams

Story of 5 former IPL teams V12_IPL_Previous Teams

IPL मेे अब नहीं खेलने वाली 5 टीमों की कहानी – Story of 5 former IPL teams

हम सभी जानते हैं कि 2022 से पहले आईपीएल में 8 टीमें थीं। IPL जब शुरुआत हुई तो भी 8 टीमे ही थीं, लेकिन 2011 में IPL में 10 टीमें खेली थीं। आईपीएल में वर्तमान में 10 टीमों के अलावा भी कुछ टीमें (Story of 5 former IPL teams) ऐसी हैं, जो पहले इस जानी मानी लीग का हिस्सा थीं और आईपीएल से अलग अलग कारणों से अलग हुईं।

आज हम बात करेंगे आईपीएल इन्हीं टीमों के बारे में जो अब दुनिया की सबसे बड़ी टी-ट्वेंटी क्रिकेट लीग आईपीएल का हिस्सा नहीं हैं। टी-ट्वेंटी क्रिकेट के इस बड़ी लीग में कुछ फ्रेंचाइजी ऐसी भी रहीं जिन्होंने कम समय में बड़ा इतिहास रचा, लेकिन फिर भी वे आज टूर्नामेंट से गायब हैं।

आज हम ऐसी ही 5 टीमों की रोचक कहानी को जानेंगे। तो चलिए शुरू करते हैं…

डेक्कन चार्जर्स (Deccan Chargers)

सबसे पहले बात करते हैं डेक्कन चार्जर्स की, जो आईपीएल के पहले सीजन से ही आईपीएल का हिस्सा थी। डेक्कन क्रॉनिकल होल्डिंग्स लिमिटेड ने हैदराबाद बेस्ड इस फ्रेंचाइजी को 1000 करोड़ रुपए में खरीदा था।

वीवीएस लक्ष्मण, एडम गिलक्रिस्ट और कुमार संगकारा जैसे दिग्गजों की कप्तानी में इस टीम ने कुल 5 सीजन खेले। इस टीम में डेल स्टेन, रोहित शर्मा, एंड्रयू सायमंड्स, हर्शल गिब्स और शाहिद अफरीदी जैसे स्टार खिलाड़ी भी शामिल थे।

डेक्कन चार्जर्स की टीम आईपीएल के दूसरे सीजन में ही चैंपियन बन गई थी। यही इस टीम की एकमात्र यादगार परफारमेंस थी। आईपीएल के दूसरा सीजन का टूर्नामेंट भारत में लोकसभा चुनावों के कारण दक्षिण अफ्रीका में खेला गया था।

गिलक्रिस्ट की कप्तानी में टीम ने सेमीफाइनल में दिल्ली डेयरडेविल्स को हराया जो आज दिल्ली कैपिटल्स के नाम से जानी जाती है। फाइनल में डेक्कन चार्जर्स का सामना आरसीबी से हुआ। फाइनल में डेक्कन चार्जर्स ने आरसीबी को हराकर आईपीएल के दूसरे सीजन की ट्राफी अपने नाम की।

अगले सीजन यानि 2010 में भी डेक्कन चार्जर्स की टीम सेमीफाइनल तक पहुंची, लेकिन चेन्नई सुपर किंग्स से हारकर बाहर हो गई। इन दो सीजन को छोड़कर ये टीम हर बार पॉइंट्स टेबल में 7वें या 8वें नंबर पर ही रही। ये टीम 2008 से 2012 तक कुल 5 सीजन खेली।

2012 में चीजें बिगड़ने लगीं थीं। इस फ्रेंचाइजी टीम की ऑनर कंपनी कर्ज में डूब गई थी और अपने खिलाड़ियों को सैलरी तक नहीं दे पा रही थी। BCCI ने कई वार्निंग दीं, लेकिन स्थिति नहीं सुधरी। फ्रेंचाइजी ने टीम बेचने की कोशिश की, लेकिन 12 अक्टूबर 2012 को BCCI ने आखिरकार डेक्कन चार्जर्स को आईपीएल से बाहर कर दिया।

इसके बाद सन टीवी नेटवर्क ने 425 करोड़ रुपए में हैदराबाद फ्रेंचाइजी खरीदी और “सनराइजर्स हैदराबाद” नाम से टीम को नये अवतार में उतारा। मजेदार बात यह है कि डेक्कन चार्जर्स के कई खिलाड़ी ही 2013 में सनराइजर्स हैदराबाद में खेलते नजर आए।

कोच्चि टस्कर्स केरला (Kochi Tuskers Kerala)

2011 के सीजन में आईपीएल में 8 टीमें खेलती थीं, जो 2008 से ही इस लीग का हिस्सा थीं। 2011 में इन टीमों की संख्या 8 से बढ़ाकर 10 की गई, और इसी दौरान कोच्चि टस्कर्स केरला नाम की नई टीम शामिल की गई। ये टीम भारत के साउथ जोन के एक राज्य केरला को रीप्रेजेंट करती थी।  रोंदेवू स्पोर्ट्स वर्ल्ड कंपनी ने इस फ्रेंचाइजी को 1555 करोड़ रुपए में खरीदा था।

श्रीलंका के महेला जयवर्धने की कप्तानी में इस टीम ने केवल एक ही सीजन खेला। टीम में ब्रेंडन मैक्कुलम, रवींद्र जडेजा, मुथैया मुरलीधरन और एस श्रीसंथ जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे, लेकिन 14 में से सिर्फ 6 मैच जीतकर वे प्लेऑफ में नहीं पहुंच सके।

हालांकि, कोच्चि टस्कर्स केरला ही वह टीम थी, जिसके खिलाफ सचिन तेंदुलकर अपने टी-ट्वेंटी करियर की इकलौती सेंचुरी लगाई थी। 15 अप्रैल 2011 को मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सचिन ने अपनी इस बेहतरीन पारी से मुंबई इंडियंस के लिए 182 रन बनाए। लेकिन मजेदार बात यह थी कि इसके बावजूद कोच्चि टस्कर्स ने मैच जीत लिया! ब्रैंडम मैक्कुलम ने शानदार 81 रन बनाकर टीम को जीत दिलाई।

अगले सीजन में टीम को खेलने का मौका नहीं मिला, क्योंकि फ्रेंचाइजी के मालिक BCCI की 156 करोड़ की बैंक गारंटी को रिन्यू नहीं करा सके। करीब 6 महीने इंतजार करने के बाद, BCCI ने 19 सितंबर 2011 को अपनी वार्षिक बैठक में टीम को टर्मिनेट कर दिया।

टीम के मालिक बीसीसीआई के खिलाफ कोर्ट में चले गए। 2015 में कोच्चि टस्कर्स केरला के फेवर में कोर्ट का फैसला आया और बीसीसीआई को फ्रेंचाइजी को 500 करोड़ का हर्जाना देना पड़ा। हालाँकि फ्रेंचाइजी मालिकों ने लीग में वापसी की कोशिश कीं, लेकिन बीसीसीआई ने इस फ्रेंचाइजी को दुबारा आईपीएल में एंट्री नहीं दी। इस फ्रेंचाइजी टीम ने अपने एकमात्र एक सीजन में कुल 14 मैच खेले जिसमें उसे 6 जीत और 8 हार मिलीं।

इस तरह से, एक शानदार शुरुआत के बावजूद कोच्चि टस्कर्स केरला का सफर केवल एक सीजन में ही खत्म हो गया।

पुणे वारियर्स इंडिया (Pune Warriors India)

2011 में ही कोच्चि टस्कर्स केरला के साथ एक और नई फ्रेंजाइजी टीम जुड़ी, ये नई फ्रेंचाइजी थी, पुणे वारियर्स इंडिया। सहारा इंडिया ग्रुप ने 2010 में पुणे बेस्ड फ्रेंचाइजी को लगभग 1700 करोड़ रुपए में खरीदा और इस प्रकार पुणे वॉरियर्स इंडिया का जन्म हुआ। यह 2011 में आईपीएल से जुड़ने वाली 10वीं टीम थी।

युवराज सिंह, सौरव गांगुली और ऐरन फिंच ने अलग-अलग अलग सीजन में इस टीम की कप्तानी की। टीम में रॉबिन उथप्पा, मनीष पांडे, स्टीव स्मिथ और भुवनेश्वर कुमार जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी शामिल थे। ये टीम 2011,  2012 और 2013 तक तीन सीजन खेली। इन तीन सीजन में ये फ्रेंचाइजी टीम बहुत कम मैच ही जीत पाई और हर बार पॉइंट्स टेबल में 8वें या 9वें स्थान पर ही रही।

2013 के सीजन में पुणे वॉरियर्स इंडिया ने एक ऐसा रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज कराया जो लगभग दस साल बाद 2024 में टूटा। 23 अप्रैल 2013 को बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में पुणे वॉरियर्स इंडिया और आरसीबी के बीच हुए मैच में आरसीबी की तरफ से खेलते हुए क्रिस गेल ने केवल 30 गेंदों में सेंचुरी लगा दी और कुल 66 गेंदों में 13 चौके और 17 छक्के लगाते हुए 175 रन की तूफानी पारी खेली।

आरसीबी द्वारा बनाया गया 263 रनों का स्कोर आईपीएल के क्रिकेट इतिहास का सबसे बड़ा व्यक्तिगत स्कोर था, जो आगे 10 सालों तक आईपीएल का हाईएस्ट स्कोर भी रहा, ये रिकार्ड तब टूटा जब 2024 के सीजन में सनराइजर्स हैदराबाद ने आरसीबी के खिलाफ ही 287 रनों का विशाल स्कोर बनाया।

2013 में पुणे फ्रेंचाइजी के मालिक सुब्रत रॉय लगभग 170 करोड़ रुपए की बैंक गारंटी को रिन्यू नहीं करा सके। BCCI ने कुछ समय इंतजार किया और फिर पिछली गारंटी के पैसे अपने अकाउंट में ट्रांसफर करा लिए। इसके बाद सुब्रत रॉय ने IPL से अपनी टीम का नाम वापस ले लिया और 26 अक्टूबर को 2013 BCCI ने भी पुणे वॉरियर्स को टर्मिनेट कर दिया।

2016 में IPL में मैच फिक्सिंग स्कैंडल

2016 में मैच फिक्सिंग स्कैंडल हुआ। इस विवाद में आईपीएल की दो टीमें चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स का नाम आ चुका था। इस कारण बीसीसीआई ने इन दोनो टीमों चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स को दो साल के लिए आईपीएल से सस्पैंड कर दिया। अब आईपीएल में 6 टीमें ही बचीं थीं तो आठ टीमों का कोटा पूरा करने के लिए बीसीसीआई ने केवल दो साल के लिए दो नई टीमों को आईपीएल में शामिल किया। इन दो टीमों के नाम गुजरात लायन्स और राइजिंग पुणे सुपजायंट्स थे।

गुजरात लायन्स (Gujarat Lions)

इंटेस्ट टेक्नोलॉजी के मालिक केशव बंसल ने राजकोट बेस्ड गुजरात लायन्स फ्रेंचाइजी को खरीदा था। सुरेश रैना की कप्तानी में, टीम ने दो सीजन खेले। रवींद्र जडेजा, ड्वेन स्मिथ, ब्रेंडन मैक्कुलम और ड्वेन ब्रावो जैसे दिग्गज इस टीम का हिस्सा थे। नए उभरते सितारे ईशान किशन के अलावा दिनेश कार्तिक जैसे स्टार प्लेयर भी इस टीम में शामिल थे।

गुजरात लायंस ने अपने पहले ही सीजन में कमाल कर दिखाया और पॉइंट्स टेबल में टॉप किया। टीम ने 9 मैच जीते, लेकिन प्लेऑफ के दोनों मुकाबले हार गई। क्वालिफायर वन में RCB और क्वालिफायर टू में SRH ने उन्हें हराया।

अगले सीजन में टीम केवल 4 मैच ही जीत सकी और 7वें स्थान पर रही। 2018 में चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स की वापसी के साथ ही गुजरात लायंस का सफर भी खत्म हो गया।

राइजिंग पुणे सुपरजाययंट्स (Rising Pune Supergiant)

2016 में चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स पर लगे दो साल के बैन के कारण गुजरात लायन्स के साथ और एक और टीम को दो साल के लिए आईपीएल में शामिल किया गया। RPSG ग्रुप के मालिक संजीव गोयनका ने पुणे बेस्ड फ्रेंचाइजी को खरीदा और इसका नाम “राइजिंग पुणे सुपरजायंट्स” नाम रखा।

2016 में पहले सीजन में टीम एमएस धोनी की कप्तानी में उतरी। अजिंक्य रहाणे, फाफ डु प्लेसिस, बेन स्टोक्स, स्टीव स्मिथ और रवि अश्विन जैसे स्टार खिलाड़ी इस टीम का हिस्सा थे। हालांकि, पहले सीजन में टीम 14 मैचों में से केवल 5 ही जीत सकी और 7वें स्थान पर रही।

2017 में दूसरे सीजन में स्टीव स्मिथ को कप्तान बनाया गया और वह टीम को फाइनल तक ले गए। क्वालिफायर वन में मुंबई इंडियंस को 20 रन से हराकर टीम ने फाइनल में जगह बनाई।

फाइनल में भी उन्हें मुंबई इंडियंस से ही भिड़ना था। पुणे ने MI को 129 रन पर रोक दिया। मैच के आखिरी ओवर में पुणे को जीत के लिए महज 11 रन चाहिए थे और आखिरी गेंद पर 4 रन की जरूरत थी, और डैनियल क्रिश्चियन तीसरे रन की कोशिश में रनआउट हो गए। इस तरह राइजिंग पुणे सुपर जायंट्स केवल एक रन से चैंपियन बनने का मौका गंवा बैठी।

गुजरात लायन्स और राइजिंग पुणे सुपरजायंट्स को चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स की जगह केवल दो साल के लिए आईपीएल में शामिल किया था, इसलिए 2018 में इन दोनों टीमों के वापस आने पर गुजरात लायन्स और राइजिंग पुणे सुपर जायंट्स दोनों टीमों का सफर खत्म हो गया।

बाद में 2022 में गुजरात बेस्ट फ्रेंचाइजी ने गुजरात टाइटंस के रूप में आईपीएल को ज्वाइन किया तो संजीव गोयनका ने लखनऊ बेस्ड फ्रेंचाइजी लखनऊ सुपरजायंट्स के रुप में आईपीएल को फिर से ज्वाइन किया है।

ये थी आईपीएल से गायब हो चुकी उन 5 फ्रेंचाइजी टीमों की कहानी जिन्होंने थोड़े समय में भी अपनी छाप तो छोड़ी, आईपीएल में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाईं। इनमें से तीन टीमें डेक्कन चार्जर्स, कोच्चि टस्कर्स केरला और पुणे वॉरियर्स इंडिया बीसीसीआई के साथ फाइनेंशियल विवादों के कारण आईपीएल से बाहर हो गईं तो दो टीमें गुजरात लायन्स और राइजिंग पुणे सुपर जायंट्स केवल दो साल के लिए ही आईपीएल में शामिल हुई थीं।

आईपीएल का सफर आगे भी जारी है, और हर साल नए रिकॉर्ड बनते हैं, नई कहानियां लिखी जाती हैं। आगे भी शायद आईपीएल में कुछ नई टीमें शामिल हों।


उन 5 टीमों की कहानी, जो अब IPL में नहीं खेलती (वीडियो)
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सुनीता विलियम्स को जानिए – Biography of Sunita Williams

सुनीता विलियम्स को जानिए – Biography of Sunita Williams

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सुनीता विलियम्स के जीवन का आकलन (Sunita Williams life scan)

आज हम बात करेंगे एक ऐसी महिला की जिन्होंने अंतरिक्ष में भारत का नाम रोशन किया है। जी हां, हम बात कर रहे हैं सुनीता विलियम्स (Sunita Williams) की! एक ऐसी अंतरिक्ष यात्री जिनकी जड़ें भारत से जुड़ी हैं और जिन्होंने नासा में अपने साहस और कौशल से इतिहास रचा है। आइए जानते हैं उनके जीवन की रोचक कहानी।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

सुनीता विलियम्स का जन्म 19 सितंबर, 1965 को ओहायो के यूक्लिड शहर में हुआ था। उनके पिता दीपक पांड्या मूल रूप से गुजरात के करसन गांव से थे, जो 1958 में अमेरिका आए थे। उनकी माता बोनी पांड्या अमेरिकी मूल की थीं। इस प्रकार, सुनीता के रग-रग में भारतीय और अमेरिकी दोनों संस्कृतियों का खून बहता है।

बचपन से ही सुनीता को खेल और साहसिक गतिविधियों में रुचि थी। स्कूल के दिनों में वह तैराकी और हॉकी जैसे खेलों में हिस्सा लेती थीं। उन्होंने नीडहैम हाई स्कूल से 1983 में अपनी शिक्षा पूरी की।

शिक्षा और करियर की शुरुआत

अपनी स्कूली शिक्षा के बाद, सुनीता ने अमेरिकी नौसेना अकादमी से 1987 में फिजिकल साइंस में बैचलर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने फ्लोरिडा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से 1995 में इंजीनियरिंग मैनेजमेंट में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की।

सुनीता ने 1987 में अमेरिकी नौसेना में कमीशन प्राप्त किया और हेलीकॉप्टर पायलट के रूप में अपना करियर शुरू किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के हेलीकॉप्टरों पर 3,000 घंटे से अधिक उड़ान भरी और अंततः टेस्ट पायलट बनीं।

नासा में करियर

सुनीता विलियम्स ने 1998 में नासा में अंतरिक्ष यात्री के रूप में प्रवेश किया। उनका चयन नासा के 17वें अंतरिक्ष यात्री समूह में हुआ था। अंतरिक्ष यात्री बनने के बाद, उन्होंने कई महत्वपूर्ण मिशनों में हिस्सा लिया और अंतरिक्ष में कई रिकॉर्ड स्थापित किए।

पहला अंतरिक्ष मिशन – एक्सपेडिशन 14/15

सुनीता का पहला अंतरिक्ष मिशन दिसंबर 2006 से जून 2007 तक चला, जिसे एक्सपेडिशन 14 और 15 कहा गया। इस मिशन के दौरान, वह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पर रहीं और कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोग किए।

इसी मिशन के दौरान सुनीता ने एक महिला अंतरिक्ष यात्री के रूप में सबसे अधिक स्पेसवॉक करने का रिकॉर्ड बनाया। उन्होंने कुल 4 स्पेसवॉक किए, जिनकी कुल अवधि 29 घंटे 17 मिनट थी।

दूसरा अंतरिक्ष मिशन – एक्सपेडिशन 32/33

सुनीता का दूसरा अंतरिक्ष मिशन जुलाई से नवंबर 2012 तक चला। इस मिशन के दौरान, वह ISS की कमांडर भी रहीं। इस मिशन में, उन्होंने 3 और स्पेसवॉक किए और अपने पहले मिशन के रिकॉर्ड को और भी आगे बढ़ाया।

बोइंग स्टारलाइनर मिशन

सुनीता विलियम्स बोइंग स्टारलाइनर के पहले मिशन के लिए चुनी गई अंतरिक्ष यात्रियों में से एक हैं। इस मिशन का उद्देश्य एक नए अंतरिक्ष यान का परीक्षण करना है, जो भविष्य में ISS तक अंतरिक्ष यात्रियों को ले जाने के लिए उपयोग किया जाएगा।

व्यक्तिगत जीवन

सुनीता विलियम्स ने माइकल विलियम्स से शादी की, जो एक अमेरिकी पुलिस अधिकारी हैं। उनकी शादी 1990 के दशक में हुई। दंपति की कोई संतान नहीं है, लेकिन वे अपने नेफ्यू और नीस (भतीजे और भतीजियों) से बहुत प्यार करते हैं।

सुनीता अपने भारतीय मूल पर गर्व करती हैं और भारत से अपने संबंधों को हमेशा याद रखती हैं। वह कई बार भारत आ चुकी हैं और यहां के युवाओं को प्रेरित करने के लिए अनेक कार्यक्रमों में शामिल हुई हैं।

उपलब्धियां और सम्मान

सुनीता विलियम्स ने अपने करियर में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं:

  1. अंतरिक्ष में सबसे अधिक समय बिताने वाली महिलाओं में से एक (कुल 322 दिन)
  2. महिला अंतरिक्ष यात्रियों में सबसे अधिक स्पेसवॉक (कुल 7 स्पेसवॉक, 50 घंटे से अधिक)
  3. अंतरिक्ष में बोस्टन मैराथन दौड़ने वाली पहली व्यक्ति
  4. ISS की कमांडर बनने वाली दूसरी महिला

उन्हें नौसेना कमेंडेशन मेडल, नेवी एंड मरीन कॉर्प्स अचीवमेंट मेडल और हुमैनिटेरियन सर्विस मेडल सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।

वर्तमान स्थिति

वर्तमान में, सुनीता विलियम्स नासा में एक वरिष्ठ अंतरिक्ष यात्री हैं और बोइंग स्टारलाइनर कैप्सूल के फर्स्ट क्रू मेंबर के रूप में अपनी अगली उड़ान की तैयारी कर रही हैं। वह नासा के अंतरिक्ष यात्री कार्यालय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और नए अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण में भी शामिल रहती हैं।

हाल ही में वह अंतरिक्ष से धरती पर लौटी हैं, जहां वह कई महीनों तक अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर रहीं और विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगों पर काम किया।

भारत से संबंध

सुनीता विलियम्स के पिता भारत के गुजरात राज्य से हैं, इसलिए उनका भारत से गहरा संबंध है। वह अपने पिता के साथ कई बार भारत आई हैं और अपने पैतृक गांव करसन का भी दौरा किया है।

2007 में, जब वह अपने पहले अंतरिक्ष मिशन से लौटीं, तो उन्होंने भारत का दौरा किया और अहमदाबाद के विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में एक समारोह में हिस्सा लिया। उस दौरान उन्होंने भगवद्गीता की एक प्रति और गणेश जी की मूर्ति भी अंतरिक्ष में ले जाने की बात बताई, जो उनके भारतीय मूल्यों और संस्कृति से जुड़ाव दर्शाती है।

सुनीता ने कई भारतीय छात्रों और वैज्ञानिकों को प्रेरित किया है और वह भारत-अमेरिका के बीच वैज्ञानिक सहयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं।

प्रेरणादायक संदेश

सुनीता विलियम्स का जीवन हमें सिखाता है कि सपने देखने और उन्हें पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। एक भारतीय-अमेरिकी महिला के रूप में, उन्होंने दुनिया को दिखाया है कि जातीयता या लिंग कोई बाधा नहीं है, बल्कि आपकी क्षमता और प्रतिबद्धता ही आपकी सफलता का मानदंड हैं।

वह अक्सर युवाओं को संदेश देती हैं कि वे अपने सपनों के पीछे भागें और कभी हार न मानें। उनका मानना है कि हर चुनौती एक अवसर है और असफलताएं सफलता की सीढ़ियां हैं।

आज हमने जाना सुनीता विलियम्स के बारे में, जिन्होंने न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए एक मिसाल कायम की है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि कठिन परिश्रम, समर्पण और दृढ़ संकल्प से हम अपने सपनों को हकीकत में बदल सकते हैं, चाहे वे सपने आसमान से भी ऊंचे क्यों न हों।

सुनीता विलियम्स का छोटा सा लाइफ स्कैन (वीडियो)
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ईस्टर आइलैंड: रहस्यमय मोआई की धरती – Mysterious Easter Island

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बड़ी-बड़ी मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध ये रहस्यमय आईलैंड (Mysterious Easter Island)

आज हम आपको एक ऐसे रहस्यमय द्वीप (Easter Island) की यात्रा पर ले जा रहे हैं, जो अपने विशालकाय पत्थर की मूर्तियों के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। हम बात कर रहे हैं ईस्टर आइलैंड की, जिसे स्थानीय भाषा में “रापा नुई” के नाम से जाना जाता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि प्रशांत महासागर के इस दूरस्थ कोने में, सभ्यता से हज़ारों किलोमीटर दूर, इतनी विशाल मूर्तियाँ कैसे बनीं? कौन थे वे लोग जिन्होंने इन “मोआई” नामक पत्थर के दिग्गजों को बनाया? और क्यों एक समृद्ध सभ्यता अचानक पतन की ओर चली गई?

आज के इस वीडियो में, हम ईस्टर आइलैंड के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और उसके रहस्यों की गहराई में जाएंगे। तो चलिए, इस रहस्यमयी यात्रा की शुरुआत करते हैं!

भौगोलिक स्थिति

ईस्टर आइलैंड, या रापा नुई, दक्षिण अमेरिकी देश चिली का एक हिस्सा है। यह प्रशांत महासागर में स्थित है और चिली के मुख्य भूमि से लगभग 3,700 किलोमीटर पश्चिम में है। इस द्वीप का निकटतम पड़ोसी पिटकेर्न द्वीप है, जो इससे लगभग 2,000 किलोमीटर दूर है।

Mysterious Easter Island
ईस्टर द्वीप (Easter Island)

ईस्टर आइलैंड का आकार तिकोने जैसा है और इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 163 वर्ग किलोमीटर है। द्वीप पर तीन निष्क्रिय ज्वालामुखी हैं: रानो कउ, पोइके और टेरेवाका। इन ज्वालामुखियों के कारण ही द्वीप का निर्माण हुआ था।

द्वीप का सबसे ऊंचा बिंदु माउंट टेरेवाका है, जिसकी ऊंचाई 507 मीटर है। द्वीप पर कई छोटे-छोटे क्रेटर और लावा गुफाएं भी हैं। हालांकि द्वीप के अधिकांश हिस्से में घास के मैदान हैं, लेकिन यहां प्राकृतिक जंगल बहुत कम हैं।

इतिहास और खोज

ईस्टर आइलैंड का इतिहास लगभग 1,500 साल पुराना है। अनुमान है कि पहले पोलिनेशियन लोग 400-700 ईस्वी के बीच यहां पहुंचे थे। वे अपने साथ अपनी संस्कृति, कृषि ज्ञान और जीवन शैली लेकर आए थे।

यूरोपीय लोगों द्वारा इस द्वीप की खोज 5 अप्रैल 1722 को हुई थी, जब डच नाविक जैकब रोगेवीन यहां पहुंचे। उन्होंने इस द्वीप को “ईस्टर आइलैंड” नाम दिया क्योंकि वे यहां ईस्टर संडे के दिन पहुंचे थे।

प्राचीन रापा नुई समाज कई कबीलों में बंटा था, जिनका नेतृत्व एक मुखिया करता था। समाज में कई वर्ग थे, जिनमें अरिकी (राजा या मुखिया), मारु (सैनिक), और अन्य सामान्य लोग शामिल थे।

मोआई मूर्तियां: निर्माण और रहस्य

ईस्टर आइलैंड की सबसे प्रसिद्ध विशेषता है इसकी विशाल मोआई मूर्तियां। ये मूर्तियां राणो रारकू नामक ज्वालामुखी के टफ पत्थर से बनाई गई हैं। अनुमान है कि इन मूर्तियों का निर्माण 1250 से 1500 ईस्वी के बीच हुआ था।

द्वीप पर कुल 887 मोआई मूर्तियां हैं, जिनकी औसत ऊंचाई 4 मीटर और वजन लगभग 14 टन है। सबसे बड़ी मोआई मूर्ति 10 मीटर ऊंची है और इसका वजन लगभग 82 टन है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इन मूर्तियों को बनाने के लिए प्राचीन रापा नुई लोगों ने पत्थर के औजारों का इस्तेमाल किया था। पत्थर की खदानों में मूर्तियों को काटने के बाद, उन्हें लकड़ी के रोलर्स और रस्सियों की मदद से उनके अंतिम स्थान तक पहुंचाया जाता था।

अधिकांश मोआई मूर्तियां द्वीप के तटीय क्षेत्रों में अहू नामक पत्थर के चबूतरों पर स्थापित हैं। ये मूर्तियां समुद्र की ओर पीठ किए हुए हैं और द्वीप की ओर देख रही हैं, जो माना जाता है कि वे अपने लोगों की रक्षा करती थीं।

पर्यावरणीय पतन और जनसंख्या का हृास

ईस्टर आइलैंड का इतिहास एक पर्यावरणीय त्रासदी का भी इतिहास है। जब पोलिनेशियन लोग यहां पहुंचे, तो द्वीप घने जंगलों से भरा था। लेकिन मोआई मूर्तियों के निर्माण और परिवहन के लिए बड़ी मात्रा में लकड़ी की आवश्यकता थी।

धीरे-धीरे, द्वीप के सभी पेड़ काट दिए गए। इससे मिट्टी का क्षरण हुआ, कृषि उत्पादन कम हो गया, और पक्षियों और अन्य जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो गईं। अनुमान है कि 1600 ईस्वी तक, द्वीप के सभी पेड़ समाप्त हो गए थे।

इस पर्यावरणीय पतन के कारण, रापा नुई समाज में भोजन और संसाधनों के लिए युद्ध छिड़ गया। इस अशांति के दौरान, अधिकांश मोआई मूर्तियां गिरा दी गईं। 1700 के दशक के अंत तक, द्वीप की जनसंख्या अपने चरम से घटकर लगभग 2,000-3,000 लोगों तक सिमट गई थी।

आधुनिक ईस्टर आइलैंड

आज, ईस्टर आइलैंड पर लगभग 7,750 लोग रहते हैं। द्वीप की राजधानी हांगा रोआ है, जहां अधिकांश आबादी रहती है। 1888 में, चिली ने द्वीप को अपने क्षेत्र में शामिल कर लिया और आज भी यह चिली का हिस्सा है।

पर्यटन आज द्वीप की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रोत है। हर साल लाखों पर्यटक मोआई मूर्तियों को देखने और रापा नुई संस्कृति का अनुभव करने के लिए यहां आते हैं।

पर्यटन और कैसे पहुंचें

ईस्टर आइलैंड तक पहुंचने का सबसे आसान तरीका हवाई जहाज से है। चिली की राजधानी सांतियागो से नियमित उड़ानें द्वीप के माटावेरी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे तक जाती हैं। सांतियागो से उड़ान में लगभग 5.5 घंटे लगते हैं।

द्वीप पर घूमने के लिए कई आकर्षक स्थल हैं:

  1. अहू टोंगारिकी: सबसे प्रसिद्ध मोआई स्थल, जहां 15 मोआई मूर्तियां एक पंक्ति में खड़ी हैं।
  2. राणो रारकू: मोआई मूर्तियों का पत्थर खदान, जहां कई अधूरी मूर्तियां अभी भी पत्थर में फंसी हुई हैं।
  3. राणो कउ: एक विशाल ज्वालामुखी क्रेटर, जिसके किनारे पर ओरोंगो गांव है।
  4. अनाकेना बीच: द्वीप का सबसे सुंदर समुद्र तट, जहां अहू नौ नौ के सात मोआई हैं।
  5. ओरोंगो: प्राचीन पक्षी-मनुष्य संस्कृति का केंद्र, जहां वार्षिक प्रतियोगिता होती थी।

संस्कृति और परंपराएं

आज भी रापा नुई लोग अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं। हर साल फरवरी में, द्वीप पर तपाती रापा नुई नामक एक उत्सव मनाया जाता है, जिसमें पारंपरिक नृत्य, संगीत और खेल शामिल हैं।

रापा नुई नृत्य और संगीत उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनके पारंपरिक वाद्य यंत्रों में केहो (एक प्रकार का सींग) और उकेलेले शामिल हैं।

रापा नुई लोगों की एक विशिष्ट लिपि भी थी, जिसे रोंगो-रोंगो कहा जाता है। यह दुनिया की कुछ गिनी-चुनी प्राचीन लिपियों में से एक है, जिसे आज भी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है।

निष्कर्ष

ईस्टर आइलैंड मानव इतिहास और संस्कृति का एक अद्भुत अध्याय है। यह हमें सिखाता है कि कैसे एक समाज अपनी रचनात्मकता और कल्पना की ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है, लेकिन साथ ही यह भी याद दिलाता है कि पर्यावरण के साथ संतुलन बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है।

आज, ईस्टर आइलैंड की मोआई मूर्तियां मानव इतिहास के सबसे रहस्यमय और आकर्षक स्मारकों में से एक हैं। वे हमें प्राचीन रापा नुई लोगों की प्रतिभा, साहस और संघर्ष की कहानी बताती हैं।

अगर आप कभी इस रहस्यमय द्वीप की यात्रा करने का अवसर पाएं, तो निश्चित रूप से इसे अपने जीवन के सबसे यादगार अनुभवों में से एक मानेंगे।

तो दोस्तों, यह था ईस्टर आइलैंड का रहस्यमय संसार। उम्मीद है कि आपको यह वीडियो पसंद आया होगा। अगर आपको यह जानकारी अच्छी लगी, तो कृपया इस वीडियो को लाइक करें, शेयर करें और हमारे चैनल को सब्सक्राइब करें। अगले वीडियो में हम आपको दुनिया के किसी और रहस्यमय स्थान की यात्रा कराएंगे। तब तक के लिए, नमस्कार!

बहुत अनोखा है ये आईलैंड – बड़ी-बड़ी मूर्तिंयाँ अनकही कहानी समेटें हैं Untold story of Easter Island (वीडियो)
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कोडिन्ही: जुड़वां बच्चों का रहस्यमय गांव – Kodinhi Village of Twins

तुर्कमेनिस्तान का जलता हुआ रहस्यमयी गड्ढा – Gates of Hell of Turkmenistan

कोडिन्ही: जुड़वां बच्चों का रहस्यमय गांव – Kodinhi Village of Twins

Kodinhi Village of Twins

केरल का रहस्यमयी गाँव, जहाँ जुड़वाँ ही जुड़वाँ पाए जाते हैं (Kodinhi Village of Twins)

आज हम आपको एक ऐसे रहस्यमय गाँव के बारे में बताने वाले हैं, जिसे दुनिया का ‘ट्विन विलेज’ (Kodinhi Village of Twins) कहा जाता है। भारत के दक्षिणी राज्य केरल के मलप्पुरम जिले में बसा एक छोटा सा गांव कोडिन्ही, जो एक अद्भुत रहस्य छिपाए हुए है।

इस गांव में जन्म लेने वाले बच्चों में से हर दस में एक जोड़ा जुड़वां होता है – यह दर विश्व औसत से लगभग छह गुना अधिक है! आखिर ऐसा क्यों? आज हम इसी अनसुलझे रहस्य की तह तक जाएंगे।

कोडिन्ही का परिचय 

कोडिन्ही, जिसे स्थानीय भाषा में ‘कोडिञ्ञि’ कहा जाता है, एक छोटा सा गांव है जिसकी आबादी लगभग 20,000 है। लेकिन यहां का सबसे आश्चर्यजनक तथ्य है कि इस गांव में 200 से अधिक जुड़वां जोड़े रहते हैं!

विश्व स्तर पर, जुड़वां बच्चों के जन्म का औसत दर हर 1000 जन्मों पर 6-9 जोड़े होता है। लेकिन कोडिन्ही में? यह आंकड़ा हर 1000 जन्मों पर लगभग 45 जोड़े तक पहुंच जाता है। यह दर दुनिया के किसी भी अन्य स्थान से कहीं अधिक है!

और अद्भुत बात यह है कि यह घटना अभी भी जारी है। हर साल जन्म लेने वाले बच्चों में जुड़वां की संख्या बढ़ती जा रही है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

गांव के बुजुर्गों के अनुसार, कोडिन्ही में जुड़वां बच्चों का यह अद्भुत प्रकोप 1950 के दशक से शुरू हुआ। पहले यह घटना इतनी सामान्य नहीं थी।

70 वर्षीय मुहम्मद कुट्टी बताते हैं: “जब मैं छोटा था, तब जुड़वां बच्चे एक दुर्लभ घटना हुआ करते थे। लेकिन अब? मेरे पोते-पोतियों के स्कूल में हर कक्षा में कम से कम 3-4 जोड़े जुड़वां बच्चे हैं। यह हमारे गांव की पहचान बन गई है।”

वैज्ञानिक अनुसंधान

2008 से, कई वैज्ञानिक और चिकित्सा विशेषज्ञ इस अनोखी घटना का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि, अभी तक कोई निश्चित कारण नहीं मिला है।

कुछ प्रमुख सिद्धांत हैं:

  1. जेनेटिक फैक्टर: वैज्ञानिकों का मानना है कि कोडिन्ही के लोगों में एक विशेष जीन हो सकता है जो जुड़वां बच्चों के जन्म की संभावना को बढ़ाता है।
  2. पर्यावरणीय कारक: कुछ अध्ययनों से संकेत मिलता है कि क्षेत्र के पानी या मिट्टी में कुछ विशेष तत्व हो सकते हैं।
  3. आहार संबंधी कारक: स्थानीय आहार में कुछ विशेष तत्व या पोषक तत्व जुड़वां गर्भधारण को प्रभावित कर सकते हैं।

डॉ. कृष्णन, जो इस घटना का अध्ययन कर रहे हैं, कहते हैं: “हमने कोडिन्ही के 300 से अधिक जुड़वां जोड़ों के DNA सैंपल एकत्र किए हैं। हमारा अनुमान है कि यह एक जटिल जेनेटिक-पर्यावरणीय इंटरैक्शन का परिणाम है।”

स्थानीय विश्वास और मान्यताएं 

स्थानीय लोगों के अपने विश्वास हैं। कई लोग मानते हैं कि यह कोडिन्ही के इष्टदेवता अंगारका भगवान का आशीर्वाद है।

स्थानीय निवासी सरिता बताती हैं: “हमारे पूर्वज मानते थे कि जुड़वां बच्चे भगवान का विशेष उपहार हैं। हमारे गांव में एक प्राचीन मंदिर है जहां गर्भवती महिलाएं जुड़वां बच्चों के लिए प्रार्थना करती हैं।”

जबकि विज्ञान अभी भी इस घटना का कारण खोज रहा है, स्थानीय लोग इसे गर्व से अपनी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा मानते हैं।

सामाजिक प्रभाव 

इतने सारे जुड़वां बच्चों का होना कोडिन्ही के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता है। स्कूलों में, कक्षाएं जुड़वां जोड़ों से भरी होती हैं, जिससे शिक्षकों के लिए उन्हें अलग पहचानना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

एक स्थानीय शिक्षक सुरेश बताते हैं: “मेरी कक्षा में 8 जोड़े जुड़वां बच्चे हैं। शुरू में उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल था, लेकिन अब मैं उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं को पहचानने में सक्षम हूं।”

कई परिवारों में एक से अधिक जुड़वां जोड़े हैं, जिससे परिवार का आकार बड़ा हो जाता है और आर्थिक चुनौतियां भी बढ़ जाती हैं।

वैश्विक ध्यान और पर्यटन 

कोडिन्ही की इस अनोखी विशेषता ने दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया है। वैज्ञानिक, शोधकर्ता, और मीडिया टीमें नियमित रूप से गांव का दौरा करती हैं।

2010 में, ‘ट्विन्स एंड कोडिन्ही फाउंडेशन’ की स्थापना की गई, जो जुड़वां बच्चों के अध्ययन और कल्याण के लिए समर्पित है।

हाल के वर्षों में, कोडिन्ही ने कई अंतरराष्ट्रीय जुड़वां उत्सवों की मेजबानी की है, जिसमें दुनिया भर से जुड़वां जोड़े भाग लेते हैं।

वर्तमान स्थिति और भविष्य का अनुसंधान

वर्तमान में, वैज्ञानिक एडवांस्ड जेनेटिक स्टडीज का उपयोग करके कोडिन्ही के रहस्य को सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं।

हैदराबाद के सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी के वैज्ञानिक इस क्षेत्र के पानी, मिट्टी और स्थानीय खाद्य पदार्थों का विश्लेषण कर रहे हैं।

डॉ. प्रियंका शर्मा कहती हैं: “कोडिन्ही का अध्ययन हमें मानव प्रजनन और जुड़वां गर्भधारण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दे सकता है। इसका निहितार्थ चिकित्सा विज्ञान में दूरगामी हो सकता है।”

निष्कर्ष

कोडिन्ही अपने अद्भुत रहस्य के साथ आज भी वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को आकर्षित कर रहा है। क्या यह जेनेटिक है? क्या यह पर्यावरणीय है? या फिर यह सिर्फ प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार है?

जबकि विज्ञान अभी भी उत्तर खोज रहा है, कोडिन्ही के लोग अपनी इस अनोखी विशेषता को गर्व से संजोए हुए हैं। यह न केवल उनकी पहचान है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक विरासत का भी हिस्सा है।

एक गांव, जहां दो का जन्म एक साथ होना एक नियम है, न कि अपवाद – यही है केरल के कोडिन्ही गाँव की विशेषता!

 


जुड़वाँ ही जुड़वाँ पाए जाते हैं, इस गाँव में.. ( वीडियो)
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तुर्कमेनिस्तान का जलता हुआ रहस्यमयी गड्ढा – Gates of Hell of Turkmenistan

लोमड़ी : जंगल के इस चालाक जानवर की कुछ अनसुने राज़ जानिए। (Facts about Fox)

तुर्कमेनिस्तान का जलता हुआ रहस्यमयी गड्ढा – Gates of Hell of Turkmenistan

Gates of Hell Turkmenistan

तुर्कमेनिस्तान का जलता हुआ रहस्यमयी गड्ढा – Gates of Hell of Turkmenistan

इस दुनिया ऐसी बहुत सी रहस्यमयी जगहे हैं जिसमें ज्यादातर जगहें तो प्रकृति द्वारा निर्मित हैं, तो कुछ जगहें ऐसी भी हैं जो मानव द्वारा निर्मित की गईं है। मानवीय भूल के कारण कुछ जगहें ऐसी जगह बन गई हैं, लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गई है।

दुनिया के कुछ सबसे रहस्यमय और अद्भुत स्थानों में से एक ऐसी ही जगह है, “गेट्स ऑफ हेल” (Gates of Hell) या “दरवाज़ा”, जो तुर्कमेनिस्तान के मध्य में स्थित एक जलता हुआ गड्ढा है। यह प्राकृतिक गैस का एक विशाल क्रेटर है जो पिछले पांच दशकों से लगातार जल रहा है। आइए जानते हैं इस अद्भुत स्थान के बारे में कुछ रोचक तथ्य।

स्थान और परिचय

तुर्कमेनिस्तान मध्य एशिया में स्थित एक देश है जो उत्तर में कजाकिस्तान, पूर्व में उज्बेकिस्तान, दक्षिण-पूर्व में अफगानिस्तान, दक्षिण में ईरान और पश्चिम में कैस्पियन सागर से घिरा हुआ है। गेट्स ऑफ हेल, जिसे स्थानीय भाषा में “दरवाज़ा” कहा जाता है, तुर्कमेनिस्तान के कराकुम रेगिस्तान में, अशगाबात शहर से लगभग 260 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। दरबाज़ा गांव के पास स्थित यह क्रेटर लगभग 70 मीटर चौड़ा और 30 मीटर गहरा है।

इतिहास और उत्पत्ति

गेट्स ऑफ हेल का जन्म एक दुर्घटना से हुआ था। 1971 में, जब तुर्कमेनिस्तान सोवियत संघ का हिस्सा था, तब सोवियत भू-वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में तेल और गैस की खोज के लिए ड्रिलिंग शुरू की थी।

ड्रिलिंग के दौरान, वैज्ञानिकों ने अनजाने में एक भूमिगत प्राकृतिक गैस के भंडार को छेद दिया, जिससे ज़मीन धंस गई और एक बड़ा गड्ढा बन गया।

गड्ढे से निकलने वाली मीथेन गैस से आसपास के वातावरण में ज़हरीली गैस फैलने की चिंता में, वैज्ञानिकों ने इसे जलाने का फैसला किया। उनका अनुमान था कि गैस कुछ ही हफ्तों में जलकर खत्म हो जाएगी।

लेकिन उनके अनुमान के विपरीत, यह आग 50 से अधिक वर्षों से लगातार जल रही है और अभी भी कोई रुकने के संकेत नहीं हैं।

विशेषताएं और रहस्य

इस क्रेटर में तापमान 1,000 डिग्री सेल्सियस (1,830 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंच सकता है, जो एक सक्रिय ज्वालामुखी के तापमान के बराबर है।

रात के समय, इस जलते हुए क्रेटर का दृश्य किसी अंतरिक्ष के दृश्य जैसा लगता है – लाल-नारंगी लपटें अंधेरे में चमकती हुई, किसी अन्य ग्रह के दृश्य की याद दिलाती हैं।

इस क्रेटर से निकलने वाली गैस मुख्य रूप से मीथेन है, जो ग्रीनहाउस गैस है और ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है। कुछ अनुमानों के अनुसार, इस क्रेटर से प्रतिदिन हजारों क्यूबिक मीटर मीथेन वातावरण में जारी होती है।

2010 में, तुर्कमेनिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति गुरबांगुली बेर्दीमुहामेदोव ने इस क्रेटर को बंद करने का आदेश दिया था, लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हुआ। 2022 में, उन्होंने फिर से इसे बंद करने का आह्वान किया, लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली है।

पर्यटन और संस्कृति

गेट्स ऑफ हेल तुर्कमेनिस्तान में एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण बन गया है, जहां हर साल हजारों पर्यटक इस अद्भुत प्राकृतिक घटना को देखने आते हैं। कई साहसी पर्यटक रात में रेगिस्तान में कैंपिंग करते हैं ताकि वे इस अद्भुत दृश्य का आनंद ले सकें।

स्थानीय लोग इस जगह से जुड़ी कई किंवदंतियों और कहानियों में विश्वास करते हैं। कुछ मानते हैं कि यह वास्तव में नरक का द्वार है, जबकि अन्य इसे एलियन के लैंडिंग स्थल के रूप में देखते हैं।

2014 में, कनाडाई खोजकर्ता जॉर्ज कौरौनिस इस क्रेटर के अंदर उतरने वाले पहले व्यक्ति बने। उन्होंने विशेष गर्मी-प्रतिरोधी सूट पहनकर इस क्रेटर के अंदर का वीडियो बनाया, जिसने दुनिया भर में ध्यान आकर्षित किया।

वैज्ञानिक महत्व

2013 में, वैज्ञानिकों ने क्रेटर के अंदर से नए प्रकार के बैक्टीरिया की खोज की जो अत्यधिक तापमान में भी जीवित रह सकते हैं। ये जीव “एक्स्ट्रीमोफाइल्स” कहलाते हैं और वैज्ञानिकों को अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावनाओं के बारे में और अधिक जानने में मदद कर सकते हैं।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्रेटर के अध्ययन से सौर मंडल के अन्य ग्रहों, विशेष रूप से शुक्र ग्रह की सतह पर मौजूद स्थितियों को समझने में मदद मिल सकती है।

पर्यावरणीय प्रभाव और भविष्य

पर्यावरणविदों की चिंता है कि इस लगातार जलती आग से तुर्कमेनिस्तान के पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इससे निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य प्रदूषकों से स्थानीय और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में वृद्धि हो सकती है।

वर्तमान में, वैज्ञानिक और इंजीनियर इस क्रेटर को बंद करने के विभिन्न तरीकों पर काम कर रहे हैं, जिसमें क्रेटर को मिट्टी और बजरी से भरना या विशेष गैस-अवशोषक तकनीकों का उपयोग करना शामिल है। हालांकि, इस मुद्दे का समाधान अभी भी एक बड़ी इंजीनियरिंग चुनौती बना हुआ है।

समापन

तुर्कमेनिस्तान कe “गेट्स ऑफ हेल” एक ऐसी जगह है, जो मानव त्रुटि और प्रकृति की शक्ति का प्रतीक है। यह जलता क्रेटर हमें याद दिलाता है कि प्रकृति के साथ हमारे हस्तक्षेप के अप्रत्याशित और दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं। यह एक ऐसा स्थान है जो भयावह होने के साथ-साथ अद्भुत भी है, और जो हमें प्रकृति के प्रति सम्मान और सावधानी बरतने का संदेश देता है।

नरक का दरवाज़ा है ये जगह – Gates of Hell in Turkmenistan (वीडियो)

 

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लोमड़ी : जंगल के इस चालाक जानवर की कुछ अनसुने राज़ जानिए। (Facts about Fox)

भेड़िया – जंगल का एक अजूबा और रहस्यमय प्राणी – Unknown Facts about wolf

लोमड़ी : जंगल के इस चालाक जानवर की कुछ अनसुने राज़ जानिए। (Facts about Fox)

Facts about Fox

लोमड़ी के बारे में कुछ रोचक तथ्य – Facts about Fox

आज हम बात करेंगे एक ऐसे चतुर जानवर के बारे में जिसकी चालाकी के बारे में हम अक्सर किस्से-कहानियों में सुनते आ रहे हैं। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं, अपनी चालाकी के मशहूर जानवर लोमड़ी की! आइए जानते हैं इस बुद्धिमान जानवर के बारे में कुछ रोचक-मजेदार बातें….

लोमड़ी एक बेहद चालाक जानवर होती है ये तो हम सभी जानते हैं। ये बात पूरी तरह सच है। उसकी कुछ चालाकी वाली हरकतों कारण ही उसे एक बुद्धिमान जानवर माना जाता है।

लोमड़ी कुत्ते के परिवार से संबधित है, जिसे कैनिडे कहा जाता है। इस परिवार में भेड़िया, कुत्ता, सियार, लोमड़ी जैसे जानवर आते हैं।

दुनिया भर में लोमड़ी की लगभग 27 अलग-अलग प्रजातियाँ पाई जाती हैं। लोमड़ी की कुछ प्रजातियों में लाल लोमड़ी, किट लोमड़ी, स्विफ्ट लोमड़ी, बंगाल लोमड़ी, तिब्बती लोमड़ी और रूपेल रेत की लोमड़ी शामिल हैं।

इनमें से सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है रेड फॉक्स यानि लाल लोमड़ी दुनिया के हर महाद्वीप पर पाई जाती है। रेड फॉक्स की 45 उप-प्रजातियाँ होती हैं। यह लोमड़ी की सबसे बड़ी प्रजाति है और उत्तरी गोलार्ध में पाई जा सकती है।

किट लोमड़ी उत्तरी अमेरिका में सबसे छोटी लोमड़ी की प्रजाति है, जिसके बड़े कान होते हैं। स्विफ्ट लोमड़ी उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी घास के मैदानों में पाई जाती है, यह पौधों और जानवरों दोनों को खाती है। बंगाली लोमड़ी जिसे भारतीय लोमड़ी के रूप में भी जाना जाता है, यह भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाती है। तिब्बती लोमड़ी तिब्बती पठार के मैदानों और अर्ध-रेगिस्तानों में पाई जाती है। रूपेल रेत लोमड़ी मध्य पूर्व, दक्षिण-पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका में पाई जाती है।

कुत्ते परिवार के कई सदस्य जैसे भेड़िया, सियार और जंगली कुत्ते आदि झुंड में रहना पसंद करते हैं लेकिन लोमड़ी झुंड में रहना पसंद नहीं करती हैं। वह अकेला रहना पसंद करती हैं। लेकिन वह एकदम अकेली भी नहीं रहती है। वह अपने परिवार के साथ रहना पसंद करती है। वह केवल अपने बच्चों और अपने नर या मादा साथी के साथ ही रहती हैं। लेकिन वह भोजन की तलाश करने अकेली जाती है। वह शिकार भी अकेले करना पसंद करती है। लोमड़ी अपने बच्चों का बहुत अधिक ध्यान रखने के लिए जानी जाती है।

लोमड़ी कुत्तों के परिवार की सदस्य होते हुए भी बिल्लियों जैसी कई विशेषताएं रखती है। उसकी आंखें रात में देखने के लिए अनुकूलित होती हैं, और वे अपने शिकार का पीछा करने के बजाय बिल्लियों की तरह दबे पांव चलकर अचानक हमला करती हैं।

लोमड़ियों के पास चुंबकीय दिशा-सूचक होता है

लोमड़ियां पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस कर सकती हैं, जो उन्हें दिशा निर्धारित करने में मदद करता है। जब वे शिकार करती हैं, तो अक्सर उत्तर-पूर्वी दिशा में कूदती हैं। इससे उनके शिकार को सफलतापूर्वक पकड़ने की संभावना 75% तक बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह क्षमता उनके कानों में मौजूद विशेष फेरोसम नामक कणों की वजह से है, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से प्रभावित होते हैं।

लोमड़ियां 20 से अधिक प्रकार की आवाज़ें निकाल सकती हैं

लोमड़ियां 30 से 40 अलग-अलग प्रकार की आवाज़ें निकाल सकती हैं। इनमें बारक, स्क्रीम, ग्रोल और यहां तक कि एक खासकर तरह की हंसी जैसी आवाज़ भी शामिल है। ये आवाज़ें लोमड़ी द्वारा कम्यूनिकेशन के लिए उपयोग की जाती हैं, जैसे चेतावनी देने, अपने जोड़े के साथी आकर्षित करने या किसी खास एरिया की पहचान करने के लिए अलग अलग आवाजें। लोमड़ी की सबसे फेमस आवाज “वॉक्स स्क्रीम” रात के समय सुनी जा सकती है और यह इतनी डरावनी हो सकती है कि लोग अक्सर इसे किसी इंसान की चीख समझ बैठते हैं।

लोमड़ियां अपने पूंछ का उपयोग कई तरह से करती हैं

लोमड़ी की फ्लफी पूंछ जिसे “ब्रश” या “स्टर्न” भी कहा जाता है, दिखने में बहुत सुंदर होती है। लेकिन ये लोमड़ी के लिए बहुत उपयोगी होती है। यह सर्दियों में लोमड़ी के लिए एक कंबल का काम करती है और अपनी पूंछ की मदद से लोमड़ी अपने शरीर को गर्म रख सकती है।

लोमड़ी की पूंछ दौड़ते समय या छलांग मारते समय उसका बैलेंस बनाए रखने में भी मदद करती है। इसके अलावा, लोमड़ी अपनी पूंछ का उपयोग दूसरी लोमड़ियों के साथ संवाद करने के लिए भी करती हैं। लोमड़ी की पूंछ की उनके मूड और इरादों का संकेत देती है।

लोमड़ियाँ बेहद फुर्तीली जानवर होती हैं। वह बहुत तेज स्पीड से दौड़ सकती हैं। लोमड़ी की कुछ प्रजातियाँ 42 मील प्रति घंटे की गति से दौड़ सकती हैं और तीन फीट तक ऊँची छलांग लगा सकती हैं, जो उनकी फुर्ती को दर्शाता है।

लोमड़ियां फल और सब्जियां भी खाती हैं

दोस्तों, वैसे तो लोमड़ियों को मांसाहारी जानवर माना जाता है, लेकिन वास्तव में वे सर्वाहारी होती है, यानि वह सब कुछ खा जाती हैं। वह मांस भी खाती हैं तो फल-सब्जियाँ भी खाती हैं। उनकी खुराक में लगभग 40% हिस्सा फल और सब्जियों ही होती हैं। वे जामुन, सेब, बेर और दूसरे कई फल खाने के लिए जाने जाती हैं। कई क्षेत्रों में, वे बीज फैलाने में मदद करती हैं क्योंकि वे फल खाती हैं और फिर अपने मल के माध्यम से बीज छोड़ती हैं। इसी कारण कुछ किसान लोमड़ियों से अपने फलों की रक्षा के लिए विशेष “फॉक्स फेंस” का उपयोग करते हैं।

लोमड़ियां 6 किलोमीटर दूर से भोजन सूंघ सकती हैं

लोमड़ियों की सूंघने की क्षमता बड़ी तेज होती है। वे 6 किलोमीटर दूर से ही सूंघकर भोजन का पता लगा सकती हैं। इसके अलावा, वे बर्फ में एक फुट नीचे तक के छिपे हुए शिकार को भी सूंघ सकती हैं। उनकी नाक में लगभग 225 मिलियन गंध रिसेप्टर होते हैं, जबकि मनुष्यों में ये केवल 5 मिलियन ही होते हैं। उनकी सूंघने की ये असाधारण क्षमता उन्हें घने जंगलों और बर्फीले इलाकों में शिकार करने  में काफी मददगार होती है, जहाँ कम रोशनी के कारण अंधेरा होता है।

लोमड़ियां अपने घर से 40 किलोमीटर की दूरी पर भी लौट सकती हैं

लोमड़ियों में बड़ा ही कमाल का नेविगेशन कौशल होता है। यदि उन्हें उनके क्षेत्र से हटा दिया जाए, तो वे 40 किलोमीटर की दूरी से भी अपने घर वापस लौट सकती हैं। यह क्षमता उनके तीक्ष्ण स्मरण और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस करने की क्षमता के कारण है। ऐतिहासिक रूप से, कई संस्कृतियों में यह माना जाता था कि लोमड़ियां जादुई नेविगेशन क्षमताओं से संपन्न हैं, और इसलिए उन्हें जादुई प्राणी माना जाता था।

आकार्टिक लोमड़ी के पैर ठंड के प्रति प्रतिरोधी होते हैं

आर्कटिक लोमड़ी सबसे ठंडे वातावरण में रहने वाले स्तनधारियों में से एक है। उनके पैरों में एक विशेष “काउंटरकरंट हीट एक्सचेंज सिस्टम” होता है, जो गर्म रक्त को ठंडे रक्त के साथ बदल देता है जैसा कि यह उनके पैरों में प्रवाहित होता है। इससे उनके पैरों का तापमान बस जमाव बिंदु के ऊपर बना रहता है, जिससे ऊर्जा संरक्षित होती है और बर्फ पर चलते समय जमने से बचाव होता है। वे माइनस 70°C जैसे तापमान में भी जीवित रह सकती हैं।

लोमड़ियों के बच्चे अंधे और बहरे पैदा होते हैं

लोमड़ी का प्रजनन काल साल में केवल एक बार होता है। मादा लोमड़ी एक बार में 4 से 6 बच्चों को जन्म देती है, जिन्हें वह अपने साथ रखती है।  लोमड़ी के बच्चे, जिन्हें किट्स कहा जाता है, पूरी तरह से अविकसित अवस्था में जन्म लेते हैं। वे जन्म के समय अंधे, बहरे और लगभग बालरहित होते हैं।

लोमड़ी की आँखें 10 से 14 दिनों में खुलती हैं, और उनके कान 3 हफ्तों तक काम नहीं करते। इस दौरान, वे पूरी तरह से अपनी मां पर ही निर्भर होते हैं, जो उन्हें अपने शरीर की गर्मी से गर्म रखती है। दिलचस्प बात यह है कि नर लोमड़ी, जिसे डॉग कहा जाता है, वो भी बच्चों की देखभाल में मदद करता है, जो कि दूसरे जंगली कुत्ते की प्रजातियों में असामान्य है।

लोमड़ियां एक ही समय में अपनी आंखों को अलग-अलग दिशाओं में केंद्रित कर सकती हैं

लोमड़ियों की आंखें विशेष रूप से अनुकूलित होती हैं। वे एक ही समय में एक आंख से ऊपर और दूसरी से नीचे या एक तरफ देख सकती हैं। यह क्षमता उन्हें एक साथ कई खतरों और शिकार की निगरानी करने की अनुमति देती है। इसके अलावा, उनकी आँखें बिल्लियों की तरह वर्टिकल स्लिट वाली होने के बजाय, कुत्तों की तरह गोल पुतलियों वाली होती हैं, लेकिन रात में कम रोशनी में देखने के लिए अनुकूलित होती हैं। लोमड़ी की आँखें रात के समय चमकती हैं। यह उनकी आँखों में मौजूद एक विशेष परत के कारण होता है, जो रोशनी को परावर्तित करती है और उन्हें अंधेरे में देखने में मदद करती है।

लाल लोमड़ियां पेड़ों पर चढ़ सकती हैं

कुत्ते प्रजाति के जानवर जैसे भेड़िया, कुत्ता, सियार वगैरा पेड़ पर नहीं चढ़ पाते लेकिन लोमड़ियों की एक उपप्रजाति लाल लोमड़ियां पेड़ चढ़ने वाली होती हैं। उनके तेज, अर्ध-अस्थायी नाखून और लचीली कलाई उन्हें पेड़ों पर आसानी से चढ़ने और यहां तक कि पेड़ की शाखाओं पर आराम करने में सहायक होते हैं। वे अक्सर शिकारियों से बचने या फल को पकड़ने के लिए पेड़ों पर चढ़ती हैं। कुछ लोमड़ियां 6 मीटर यानि लगभग 20 फीट तक की ऊंचाई पर पेड़ों पर सो सकती हैं, जिससे उन्हें जमीन पर रहने वाले शिकारियों से सुरक्षा मिलती है।

लोमड़ियां एक किलोमीटर दूर से अपने शिकार के दिल की धड़कन सुन सकती हैं

लोमड़ियों की सुनने की क्षमता भी असाधारण होती है। वे एक किलोमीटर दूर से छोटे जानवरों के दिल की धड़कन या उनके बिल के नीचे चूहों के हलचल को सुन सकती हैं। उनके कान 3 सेकंड में 270 डिग्री तक घूम सकते हैं और इस बात में मदद करते हैं कि आवाज कहां से आ रही है। सर्दियों में, वे बर्फ के नीचे से छोटे स्तनधारियों की आवाज़ सुन सकती हैं और फिर उनपर एकदम सटीक झपट्टा मारकर उन्हें अपना शिकार बनाती हैं।

कुछ लोमड़ियां अपना रंग मौसम के अनुसार बदलती हैं

आर्कटिक लोमड़ी जैसी कुछ प्रजातियां मौसम के अनुसार अपना रंग बदलती हैं। गर्मियों में, उनके फर यानि खाल का रंग भूरा या मटमैला होता है जो उन्हें टुंड्रा जैसे क्षेत्रों में छिपने में मदद करता है, जबकि सर्दियों में उनका फर बर्फ जैसा सफेद हो जाता है, जो उन्हें बर्फीले वातावरण में लगभग गायब होने जैसा बना देता है। इससे वे अपने दुश्मनों को आसानी से नजर नहीं आती हैं। लोमड़ियों में यह परिवर्तन तापमान और दिन की लंबाई में परिवर्तन से ट्रिगर होने वाले हार्मोनल परिवर्तनों के कारण होता है।

लोमड़ियां अद्भुत “माउसिंग” तकनीक का उपयोग करती हैं

लोमड़ियां बर्फ में छिपे चूहों को पकड़ने के लिए एक विशिष्ट “माउसिंग” तकनीक का उपयोग करती हैं। इस तकनीक को माउस फेंस कहा जाता है। वे अपने कानों से चूहों की आवाज़ सुनती हैं, फिर हवा में ऊंची छलांग लगाती हैं और बर्फ में सिर की तरफ से पहले गोता लगाती हैं। इस छलांग को सटीक रूप से कैलकुलेट करके ही लगाती हैं। लोमड़ी अक्सर 3 फीट बर्फ के नीचे छिपे चूहे को पकड़ लेती है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि जब लोमड़ियां उत्तर-पूर्व दिशा में छलांग लगाती हैं, तो उनकी सफलता दर 75% तक बढ़ जाती है।

लोमड़ियां अपने भोजन को दफनाकर स्टोर करती हैं

लोमड़ियां अपने अतिरिक्त भोजन को “कैश” या “कैचिंग” नामक प्रक्रिया के द्वारा जमीन में दबाकर स्टोर कर देती हैं। वे छोटे गड्ढे खोदती हैं, भोजन को अंदर रखती हैं, और फिर मिट्टी और पत्तियों से ढक देती हैं। एक लोमड़ी अपने क्षेत्र में कई स्थानों पर तरह-तरह के भोजन छिपा देती है और उन सभी जगहों को हमेशा याद रखती है। इस तरह वह अपने बच्चों के लिए भोजन स्टोर करती है।

लोमड़ियों की औसत उम्र 3 साल है, लेकिन कुछ 14 साल तक जीवित रह सकती हैं

जंगल में, लोमड़ियों की औसत आयु केवल तीन से चार साल ही होती है, मुख्य रूप से दूसरे जानवरों द्वारा लोमड़ियों के शिकार, बीमारियां और किसी वाहन आदि से टकराकर एक्सीडेंट के कारण वह लंबे समय तक नहीं जी पाती हैं। हालांकि, पालतू या किसी संरक्षित वातावरण में, वे 10 से 14 साल तक जीवित रह सकती हैं। अभी तक सबसे लंबे समय तक जीने वाली लोमड़ी एक  पालतू लोमड़ी थी जो लगभग 14 साल और 9 महीने तक जीवित रही थी। इस कम जीवन प्रत्याशा के बावजूद, लोमड़ियां अत्यधिक अनुकूलनशील हैं और मानव बस्तियों के करीब भी फल-फूल सकती हैं।

लोमड़ी को कुत्ते और बिल्ली की तरह कुछ हद तक पालतू बनाया जा सकता है। वह बहुत चालाक होती है और जल्दी सीखती है, जिससे वह इंसानों के साथ अच्छी तरह से रह सकती है। लेकिन उन्हें पूरी तरह पालतू नहीं बनाया जा सकता। हालाँकि कई देशों में लोमड़ियाँ मानव बस्तियों में रहने के अनुकूल हैं, और मानव बस्तियों में आमतौर पर पाईं जाती हैं। यूरोप के कई देशों के शहरों में खासकर इंग्लैंड के लंदन में लोमड़ियों का शहरी आबादी में पाया जाना सामान्य है।

फेननेक फॉक्स, जो उत्तरी अफ्रीका के रेगिस्तानों में पाई जाती है, दुनिया की सबसे छोटी लोमड़ी है। इनका वजन लगभग 1.5 किलोग्राम होता है, और उनके बड़े कान शरीर की गर्मी को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।

ये थे लोमड़ी के बारे में कुछ अनोखी बातें। आशा है कि आपको ये जानकारी पसंद आई होगी। ऐसी कुछ और रोचक जानकारियों के बारे मे जानने के लिए हमारे दूसरे आर्टिकल भी पढ़िए।

लोमड़ी : जंगल के इस चालाक जानवर की कुछ अनसुने राज़ जानिए। (Facts about Fox) (Video)

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